पूर्व केंद्रीय गृहमंत्री और कांग्रेस नेता पी. चिदंबरम ने 26/11 मुंबई हमलों के आरोपी तहव्वुर हुसैन राणा के प्रत्यर्पण पर प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि उन्हें यह जानकर खुशी हुई कि 10 अप्रैल, 2025 को भारत उसे अमेरिका से प्रत्यर्पित करके लाया गया है। हालांकि उन्होंने यह भी जोड़ा कि इस पूरे घटनाक्रम की असली कहानी सामने लाना जरूरी है। पी. चिदंबरम ने कहा कि जबकि मौजूदा मोदी सरकार इस सफलता का पूरा श्रेय खुद लेने की होड़ में है, सच्चाई इससे काफी अलग है। उन्होंने स्पष्ट किया कि यह प्रत्यर्पण दरअसल पिछले डेढ़ दशक से चल रही एक कठिन, सुनियोजित और रणनीतिक कूटनीति का नतीजा है, जिसकी नींव और निरंतरता यूपीए सरकार ने अमेरिका के साथ मिलकर रखी थी। उन्होंने जानकारी दी कि इस दिशा में पहला बड़ा कदम 11 नवंबर 2009 को तब उठाया गया, जब राष्ट्रीय जांच एजेंसी (NIA) ने नई दिल्ली में डेविड कोलमेन हेडली (अमेरिकी नागरिक), तहव्वुर राणा (कनाडाई नागरिक) और अन्य के खिलाफ केस दर्ज किया था। इसी महीने, कनाडा के विदेश मंत्री ने भारत को खुफिया सहयोग देने की पुष्टि भी की थी, जो यूपीए सरकार की प्रभावशाली विदेश नीति का नतीजा था।
‘यूपीए सरकार ने लगातार बनाए रखा कूटनीतिक दबाव’
कांग्रेस नेता पी. चिदंबरम ने आगे कहा कि 2009 में एफबीआई ने तहव्वुर राणा को शिकागो से उस समय गिरफ्तार किया था, जब वह कोपेनहेगन में एक नाकाम आतंकी हमले की साजिश में लश्कर-ए-तैयबा की मदद कर रहा था। हालांकि, जून 2011 में अमेरिकी अदालत ने उसे 26/11 हमलों में सीधे तौर पर शामिल होने के आरोप से बरी कर दिया, लेकिन अन्य आतंकी साजिशों में दोषी पाए जाने के बाद 14 साल की सजा सुनाई गई। इस फैसले के बाद यूपीए सरकार ने सार्वजनिक रूप से अपनी नाराजगी जाहिर की और अमेरिका पर कूटनीतिक दबाव बनाए रखा।
‘एनआईए ने की हेडली से पूछताछ, मिले अहम सबूत’
चिदंबरम ने बताया कि तमाम कानूनी अड़चनों के बावजूद यूपीए सरकार ने न केवल राजनयिक स्तर पर बल्कि कानूनी प्रक्रियाओं के जरिये भी अपने प्रयास जारी रखे। 2011 के अंत से पहले, एनआईए की एक तीन सदस्यीय टीम अमेरिका भेजी गई, जिसने डेविड हेडली से पूछताछ की। अमेरिका ने परस्पर कानूनी सहायता संधि (MLAT) के तहत भारत को जांच से जुड़े अहम सबूत सौंपे, जो बाद में दिसंबर 2011 में दायर एनआईए की चार्जशीट का हिस्सा बने। इसके बाद एनआईए की विशेष अदालत ने गैर-जमानती वारंट जारी किए और इंटरपोल के जरिए फरार आरोपियों के खिलाफ रेड नोटिस भी निकलवाए। ये सभी कदम एक सुनियोजित और गंभीर कानूनी कूटनीति का हिस्सा थे।
‘हिलेरी क्लिंटन के सामने भी उठाया गया मामला’
चिदंबरम ने कहा कि 2012 में तत्कालीन विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद और विदेश सचिव रंजन माथाई ने अमेरिकी विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन और अंडर सेक्रेटरी वेंडी शेरमन के समक्ष राणा और हेडली के प्रत्यर्पण का मुद्दा मजबूती से उठाया। जनवरी 2013 तक दोनों को सजा सुनाई जा चुकी थी। यूपीए सरकार ने न केवल हेडली की सजा पर नाराजगी जाहिर की, बल्कि राणा के प्रत्यर्पण की मांग भी दोहराई। उस समय अमेरिका में भारत की राजदूत निरुपमा राव ने भी इस मुद्दे को अमेरिकी प्रशासन के समक्ष लगातार प्रमुखता से उठाया। यह पूरा घटनाक्रम दिखाता है कि कैसे अंतरराष्ट्रीय न्याय से जुड़े जटिल मामलों को भी धैर्य, रणनीति और कुशल राजनयिक तरीके से संभाला जा सकता है।
2014 के बाद क्या हुआ? यूपीए की नींव पर ही आगे बढ़ी प्रक्रिया
पूर्व गृह मंत्री पी. चिदंबरम ने बताया कि 2014 में सरकार बदलने के बाद भी तहव्वुर राणा के प्रत्यर्पण की प्रक्रिया पूरी तरह से उसी संस्थागत कूटनीतिक पहल पर टिकी रही, जिसकी नींव यूपीए सरकार ने रखी थी। उन्होंने कहा कि 2015 में डेविड हेडली ने सरकारी गवाह बनने की पेशकश की, और 2016 में मुंबई की अदालत ने उसे क्षमादान दिया, जिससे ज़बीउद्दीन अंसारी उर्फ अबू जुदाल के खिलाफ मामला मजबूत हुआ। चिदंबरम ने बताया कि दिसंबर 2018 में एनआईए की टीम प्रत्यर्पण से जुड़ी कानूनी पेचिदगियों को सुलझाने अमेरिका गई। जनवरी 2019 में जानकारी दी गई कि राणा को पहले अमेरिका में अपनी सजा पूरी करनी होगी। उनकी रिहाई की तारीख 2023 तय की गई थी, जिसमें पहले से की गई कैद को भी जोड़ा गया था। यह कोई “मजबूत नेता” की त्वरित सफलता नहीं, बल्कि सालों की सधी हुई कूटनीति और लगातार प्रयासों का नतीजा था।
राणा की रिहाई के बाद तेज़ हुई प्रत्यर्पण प्रक्रिया
चिदंबरम ने आगे बताया कि जून 2020 में जब राणा को स्वास्थ्य के आधार पर अस्थायी रूप से रिहा किया गया, भारत सरकार ने तुरंत उनके प्रत्यर्पण का औपचारिक अनुरोध किया। बाइडेन प्रशासन ने इस अनुरोध का समर्थन किया और मई 2023 में अमेरिकी अदालत ने भारत के प्रत्यर्पण अनुरोध को वैध माना। इसके बाद राणा ने इस फैसले के खिलाफ कई कानूनी याचिकाएं दाखिल कीं—जिनमें हैबियस कॉर्पस और डबल जियोपार्डी के आधार पर अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट में याचिका भी शामिल थी। लेकिन ये सभी याचिकाएं खारिज कर दी गईं। अंतिम कानूनी बाधा 21 जनवरी 2025 को दूर हुई—जिस दिन डोनाल्ड ट्रंप ने अमेरिका के राष्ट्रपति पद की शपथ ली थी, उसके ठीक अगले दिन।
"क्रेडिट लेने की होड़ में मोदी सरकार, लेकिन असली श्रेय किसे?"
पूर्व केंद्रीय गृह मंत्री पी. चिदंबरम ने आरोप लगाया कि मोदी सरकार इस पूरे प्रत्यर्पण अभियान का श्रेय लेने की कोशिश कर रही है, जबकि इसकी नींव वर्षों पहले यूपीए सरकार ने रखी थी। उन्होंने कहा कि फरवरी 2025 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप एक संयुक्त प्रेस कॉन्फ्रेंस में इस मामले को अपनी उपलब्धि के रूप में पेश करते नज़र आए, लेकिन सच्चाई इससे काफी अलग है। चिदंबरम ने कहा कि 17 फरवरी तक भारतीय एजेंसियों ने यह पुष्टि कर दी थी कि तहव्वुर राणा वर्ष 2005 से ही लश्कर-ए-तैयबा और आईएसआई के साथ मिलकर 26/11 हमले की साजिश में सक्रिय था। इसके बाद 8 अप्रैल 2025 को अमेरिकी अधिकारियों ने उसे भारत को सौंप दिया, और वह 10 अप्रैल को नई दिल्ली पहुंचा।
"मोदी सरकार को मिली हुई व्यवस्था का लाभ मिला"
चिदंबरम ने दो टूक कहा, “सच्चाई यही है कि मोदी सरकार ने इस प्रक्रिया की न तो शुरुआत की, न ही इस दिशा में कोई नई सफलता दर्ज की। यह पूरी तरह उस संस्थागत ढांचे और बहुपक्षीय प्रयासों का परिणाम है, जिसे यूपीए सरकार ने वर्षों की रणनीतिक कूटनीति, विधिक प्रयासों और अंतरराष्ट्रीय सहयोग के ज़रिए खड़ा किया था।” उन्होंने जोर देकर कहा, “यह कोई राजनीतिक प्रचार की जीत नहीं, बल्कि इस बात का प्रमाण है कि जब भारतीय राज्य गंभीरता, ईमानदारी और सधे हुए प्रयासों के साथ कार्य करता है, तब वह दुनिया के सबसे जटिल और खतरनाक अपराधियों को भी न्याय के कठघरे में लाने में सफल हो सकता है।”