बीकानेर। ईरान और इजरायल के बीच बढ़ते युद्ध ने न केवल मध्य-पूर्व को तनाव के घेरे में ले लिया है, बल्कि इसका असर अब भारतीय बाजारों तक साफ देखा जा रहा है। खासकर बीकानेर के ऊन उद्योग पर इस संघर्ष की प्रत्यक्ष छाया पड़ने लगी है। बीकानेर, जो देश का प्रमुख ऊन प्रोसेसिंग हब माना जाता है, आज वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला की टूटन और आयात-निर्यात में असंतुलन के कारण एक गहरे आर्थिक संकट की ओर बढ़ रहा है। यहां का ऊन उद्योग, जो देश-विदेश में मशहूर वूलन कारपेट्स की रीढ़ रहा है, अब मांग और आपूर्ति के बीच बुरी तरह उलझ गया है।
ऊन के आयात पर पूरी तरह निर्भर बीकानेर, अब संकट में
बीकानेर की वूलन इंडस्ट्री मुख्यतः विदेशों से आयात की गई कच्ची ऊन पर आधारित है। विशेषकर मिडिल ईस्ट और न्यूजीलैंड से ऊन की भारी मात्रा में आपूर्ति होती रही है। ऊन उद्योग से दशकों से जुड़े कारोबारी राजाराम सारडा बताते हैं कि ईरान इस आपूर्ति का एक प्रमुख स्त्रोत रहा है। लेकिन मौजूदा युद्ध के चलते ईरान से आयात पूरी तरह से रुक गया है। ऊपर से न्यूजीलैंड से आने वाली ऊन का रूट बदलने के कारण ट्रांसपोर्टेशन में देरी और लागत दोनों बढ़ गई हैं। इससे एक ओर जहां ऊन की कीमतों में तेज़ी आई है, वहीं दूसरी ओर समय पर डिलीवरी न होने से बड़े-बड़े ऑर्डर अधर में लटक गए हैं।
डॉलर मजबूत, करेंसी कमजोर, कारोबारी दबाव में
राजाराम सारडा यह भी कहते हैं कि युद्ध जैसे हालात केवल कच्चे माल की आपूर्ति ही नहीं रोकते, बल्कि आर्थिक अस्थिरता को भी जन्म देते हैं। यूएस डॉलर की कीमत बढ़ने से ऊन के आयात पर और दबाव बढ़ गया है, जबकि रुपये सहित अन्य करेंसी कमजोर हो गई है। इससे व्यापारियों को पहले से तय कीमतों पर ऑर्डर पूरे करने में मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है। जो सप्लाई समय पर नहीं पहुंचेगी, उसके कारण अंतरराष्ट्रीय ग्राहकों से पहले लिए गए ऑर्डर भी रद्द हो सकते हैं, जिससे सीधा नुकसान स्थानीय उद्योग और व्यापार को उठाना पड़ेगा।
जब कारपेट हो जाए लग्जरी, युद्ध में हो जाए अनचाही वस्तु
वूलन उद्योग के कारोबारी दिलीप कुमार गंगा के अनुसार, वूलन कारपेट आम तौर पर लग्जरी कैटेगरी में गिना जाता है और ऐसे उत्पादों की मांग युद्ध जैसी परिस्थितियों में सबसे पहले गिरती है। जब लोगों की प्राथमिकताएं जीवन रक्षा, बचत और बुनियादी ज़रूरतों पर सिमट जाती हैं, तो सजावटी और महंगे सामान जैसे कालीनों की बिक्री स्वाभाविक रूप से घट जाती है। उन्होंने कहा कि रूस-यूक्रेन युद्ध के समय भी यही स्थिति बनी थी। ऐसे में न केवल डिमांड कम होगी बल्कि पहले से लिए गए ऑर्डर भी निरस्त होने लगेंगे। यह परिस्थिति बीकानेर जैसे केंद्रों के लिए बड़ा आर्थिक झटका साबित हो सकती है।
ऊन का संकट पुराना, समाधान सरकारी नीति में छिपा
ऊन उद्योग से जुड़े वरिष्ठ कारोबारी निर्मल पारख का मानना है कि यह संकट एकाएक नहीं आया। बीकानेर एक समय एशिया की सबसे बड़ी ऊन मंडी हुआ करता था, लेकिन सरकार की उदासीनता ने इसे कमजोर बना दिया। न तो स्थानीय स्तर पर चारागाहों का विकास किया गया और न ही भेड़ पालन को बढ़ावा देने के लिए कोई ठोस योजना बनाई गई। नतीजा यह हुआ कि ऊन के लिए विदेशी आयात पर निर्भरता लगातार बढ़ती गई। पारख का सुझाव है कि अगर सरकार अब भी इस उद्योग को गंभीरता से ले और कोई विशेष राहत पैकेज, स्थानीय भेड़ पालन को प्रोत्साहन और ऊन उत्पादन को बढ़ावा दे तो भविष्य में इस तरह के वैश्विक संकटों से उद्योग को आत्मनिर्भर बनाकर बचाया जा सकता है।
ईरान-इजरायल युद्ध का सीधा असर अब राजस्थान के बीकानेर तक महसूस किया जा रहा है, जहां ऊन उद्योग की सेहत पहले से ही नाजुक थी। युद्ध ने आपूर्ति चैन को तोड़ा है, लागत बढ़ा दी है और मांग पर ग्रहण लगा दिया है। इन सबके बीच यह स्पष्ट हो चुका है कि अगर भारत को अपने परंपरागत उद्योगों को बचाना है, तो उन्हें आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में गंभीर कदम उठाने होंगे। वरना वैश्विक हालात की हर उठापटक का खामियाजा बीकानेर जैसे शहरों को भुगतना पड़ता रहेगा।