नई दिल्ली। भारत में प्रति दस लाख आबादी पर सिर्फ 15 न्यायाधीश उपलब्ध हैं, जो कि विधि आयोग की 1987 की सिफारिश—प्रति दस लाख पर 50 जज—से बहुत कम है। यह खुलासा 15 अप्रैल को जारी हुई इंडिया जस्टिस रिपोर्ट 2025 में किया गया है, जो देश में न्यायिक व्यवस्था की स्थिति और प्रदर्शन को लेकर राज्यों की रैंकिंग प्रस्तुत करती है।
रिपोर्ट के अनुसार, 1.4 अरब की आबादी वाले देश में फिलहाल केवल 21,285 जज हैं। इसके विपरीत, अमेरिका में प्रति दस लाख जनसंख्या पर 150 और यूरोप में यह आंकड़ा औसतन 220 है।
रिपोर्ट में बताया गया है कि उच्च न्यायालयों में स्वीकृत पदों के मुकाबले 33 प्रतिशत पद अभी भी रिक्त हैं, जबकि वर्ष 2025 में यह रिक्ति दर 21 प्रतिशत रही। इससे मौजूदा जजों पर कार्यभार अत्यधिक बढ़ गया है।
मामलों का बोझ और लंबित केसों की स्थिति
रिपोर्ट के अनुसार, जिला न्यायालयों में एक जज औसतन 2,200 मामलों का निपटारा करता है। वहीं, इलाहाबाद और मध्य प्रदेश उच्च न्यायालयों में प्रति जज 15,000 मामले लंबित हैं।
मामलों की लंबित स्थिति भी चिंताजनक बताई गई है। रिपोर्ट के अनुसार, कर्नाटक, मणिपुर, मेघालय, सिक्किम और त्रिपुरा को छोड़कर बाकी सभी उच्च न्यायालयों में हर दो में से एक मामला तीन साल से अधिक समय से लंबित है। वहीं, दिल्ली में हर पांच में से एक मामला पांच साल से ज्यादा पुराना है और दो प्रतिशत मामले दस साल से भी अधिक समय से लंबित हैं।
जिला अदालतों की बात करें तो अंडमान और निकोबार, अरुणाचल प्रदेश, बिहार, गोवा, झारखंड, महाराष्ट्र, मेघालय, ओडिशा, राजस्थान, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल में 40 प्रतिशत से अधिक मामले तीन साल से ज्यादा समय से लंबित हैं।
महिला और सामाजिक प्रतिनिधित्व पर रिपोर्ट के निष्कर्ष
रिपोर्ट में कहा गया है कि जिला अदालतों में महिला जजों की भागीदारी 2017 में 30 प्रतिशत थी, जो 2025 में बढ़कर 38.3 प्रतिशत हो गई है। उच्च न्यायालयों में यह आंकड़ा 11.4 प्रतिशत से बढ़कर 14 प्रतिशत हो गया, जबकि सुप्रीम कोर्ट में यह केवल 6 प्रतिशत है। वर्तमान में देश के 25 उच्च न्यायालयों में से केवल एक में महिला मुख्य न्यायाधीश हैं।
दिल्ली की जिला अदालतों में केवल 11 प्रतिशत पद रिक्त हैं और वहां महिला जजों की भागीदारी 45 प्रतिशत है—जो देश में सबसे अधिक मानी गई।
सामाजिक प्रतिनिधित्व की बात करें तो रिपोर्ट में बताया गया कि जिला अदालतों में अनुसूचित जनजाति (ST) समुदाय के केवल 5 प्रतिशत और अनुसूचित जाति (SC) समुदाय के 14 प्रतिशत जज हैं। वर्ष 2018 से अब तक नियुक्त किए गए 698 उच्च न्यायालयों के जजों में से केवल 37 SC और ST समुदाय से हैं। पिछड़ा वर्ग (OBC) का प्रतिनिधित्व 25.6 प्रतिशत रहा।
न्यायिक खर्च और संसाधनों की स्थिति
रिपोर्ट के अनुसार, देश में प्रति व्यक्ति कानूनी सहायता पर खर्च महज ₹6.46 है, जबकि न्यायपालिका पर कुल प्रति व्यक्ति खर्च ₹182 है। किसी भी राज्य का न्यायपालिका पर खर्च उसके कुल वार्षिक बजट का 1 प्रतिशत से अधिक नहीं है।
दिल्ली न्यायपालिका का प्रदर्शन
दिल्ली के जिला न्यायालयों में वर्ष 2024 में एक जज पर औसतन 2,023 मामले थे, जो 2017 में 1,551 थे। हालांकि यह राष्ट्रीय औसत (2,200) से कम है, फिर भी दिल्ली की केस क्लियरेंस रेट (CCR) 2024 में मात्र 78 प्रतिशत रही—जो देश में सबसे कम दरों में से एक है। 2017 से 2024 के बीच दिल्ली केवल एक बार—वर्ष 2023 में—100 प्रतिशत CCR हासिल कर पाई है।
रिपोर्ट का उद्देश्य और प्रकाशन
इंडिया जस्टिस रिपोर्ट की शुरुआत टाटा ट्रस्ट्स ने 2019 में की थी। इसका चौथा संस्करण सेंटर फॉर सोशल जस्टिस, कॉमन कॉज़, कॉमनवेल्थ ह्यूमन राइट्स इनिशिएटिव, DAKSH, टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज–प्रयास, विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी और हाउ इंडिया लाइव्स जैसे संस्थानों के सहयोग से तैयार किया गया है। रिपोर्ट का उद्देश्य न्यायिक प्रणाली में संरचनात्मक बदलाव की आवश्यकता को रेखांकित करना और तत्काल रिक्तियों की पूर्ति व समावेशिता बढ़ाने की सिफारिश करना है।