देश में जनगणना की शुरुआत की तारीख तय हो गई है। सरकार ने ऐलान किया है कि 1 मार्च 2027 से भारत में अगली जनगणना प्रक्रिया शुरू की जाएगी। खास बात यह है कि इस बार जनगणना के साथ-साथ जातिगत गणना भी की जाएगी। केंद्र सरकार पहले ही इस निर्णय की घोषणा कर चुकी है। इसका सीधा मतलब है कि राजस्थान में भी इसी तारीख से जनगणना और जातिवार आंकड़े एकत्र करने की प्रक्रिया शुरू होगी। यह प्रक्रिया दो चरणों में पूरी की जाएगी।
पहले चरण में, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, और केंद्र शासित प्रदेश लद्दाख व जम्मू-कश्मीर जैसे बर्फीले क्षेत्रों में अक्टूबर 2026 से जनगणना की शुरुआत होगी। शेष भारत में यह प्रक्रिया 1 मार्च 2027 से आरंभ होगी।
घर-घर जाकर जुटाई जाएगी जानकारी
इस बार जनगणना अधिकारी हर घर जाकर व्यक्तिगत रूप से जानकारी एकत्र करेंगे। इस प्रक्रिया में व्यक्तियों की जाति की जानकारी भी ली जाएगी। जनगणना एक ऐसा विश्लेषणात्मक अभ्यास है जिसमें देश की जनसंख्या, आयु, लिंग, शिक्षा, व्यवसाय, सामाजिक-आर्थिक स्थिति जैसे आंकड़े इकट्ठा किए जाते हैं। ये आंकड़े सरकार के लिए नीति निर्माण, योजना निर्माण और संसाधनों के न्यायोचित वितरण में बेहद उपयोगी होते हैं।
भारत में पिछली जनगणना 2011 में की गई थी, जिसमें 121 करोड़ से अधिक जनसंख्या दर्ज की गई थी। सामान्यतः हर दस वर्ष में जनगणना होती है, और 2021 में अगली जनगणना प्रस्तावित थी। लेकिन कोविड महामारी के चलते यह प्रक्रिया टाल दी गई थी। अब सरकार ने इसे 2027 में कराने का निर्णय लिया है, जिसमें जातिगत आंकड़े भी जुटाए जाएंगे।
राजस्थान में जातिगत जनगणना का राजनीतिक प्रभाव
राजस्थान में जातिगत जनगणना का असर सिर्फ आंकड़ों तक सीमित नहीं रहेगा, बल्कि इसका गहरा राजनीतिक प्रभाव पड़ने की उम्मीद है। ओबीसी वर्ग — विशेषकर जाट, माली, गुर्जर, मीणा, बिश्नोई समुदाय — लंबे समय से राज्य की सत्ता में निर्णायक भूमिका निभाते आए हैं। जातिवार आंकड़े सामने आने के बाद ये समुदाय आरक्षण, राजनीतिक प्रतिनिधित्व और योजनाओं में हिस्सेदारी को लेकर और अधिक संगठित और मुखर हो सकते हैं।
जाट समुदाय, जो अक्सर खुद को हाशिए पर मानता है, अब अपनी जनसंख्या के आधार पर आरक्षण और भागीदारी की नई मांगें रख सकता है। वहीं गुर्जर आरक्षण आंदोलन को भी नई दिशा मिलने की संभावना है।
SC/ST वर्गों — जैसे कि मेघवाल, वाल्मीकि, भील, गरासिया — के लिए भी यह अवसर होगा कि वे जनसंख्या के अनुपात में अधिक पारदर्शिता, सरकारी योजनाओं में समावेश और राजनीतिक प्रतिनिधित्व की मांग करें। भीलवाड़ा, बांसवाड़ा और डूंगरपुर जैसे आदिवासी बहुल क्षेत्रों में इस प्रक्रिया से आदिवासी मुद्दों को और बल मिलेगा। साथ ही, दलित समुदाय भी सामाजिक न्याय और सरकारी नौकरियों में हिस्सेदारी को लेकर अधिक सक्रिय भूमिका निभा सकता है।