प्रयागराज। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने बुधवार को मुस्लिम पर्सनल लॉ के अंतर्गत बहुविवाह की प्रथा पर सख्त रुख अपनाते हुए कहा कि क़ुरान में दी गई बहुविवाह की अनुमति पूरी तरह से सशर्त है, और इसे आज के समय में स्वार्थ के लिए दुरुपयोग किया जा रहा है। न्यायमूर्ति अरुण कुमार सिंह देशवाल ने यह टिप्पणी एक बहुविवाह से जुड़े मामले की सुनवाई के दौरान की।
इतिहासिक परिप्रेक्ष्य में दी गई थी बहुविवाह की अनुमति
न्यायालय ने कहा कि क़ुरान में बहुविवाह की अनुमति का इतिहासिक और मानवीय आधार था, विशेष रूप से युद्धों के बाद विधवाओं और अनाथों की रक्षा के लिए यह व्यवस्था की गई थी।
"प्रारंभिक इस्लामी काल में जब युद्धों में कई मुस्लिम पुरुष मारे गए और महिलाएं विधवा व बच्चे अनाथ हो गए, तब क़ुरान ने शर्तों के तहत बहुविवाह की अनुमति दी ताकि उनका शोषण न हो," अदालत ने कहा।
“सभी पत्नियों के साथ समान व्यवहार जरूरी”
अदालत ने स्पष्ट किया कि किसी भी मुस्लिम पुरुष को तब तक दूसरी शादी करने का अधिकार नहीं है, जब तक वह अपनी सभी पत्नियों के साथ समानता और न्याय नहीं कर सकता, जैसा कि क़ुरान में निर्देशित है। यह अधिकार पूर्ण नहीं बल्कि सशर्त है।
बहुविवाह और भारतीय दंड संहिता की धारा 494 पर अदालत का स्पष्टीकरण
हाईकोर्ट ने बहुविवाह से संबंधित भारतीय दंड संहिता की धारा 494 (बिगैमी) के संदर्भ में भी स्थिति स्पष्ट की:
1. यदि मुस्लिम पुरुष अपनी पहली शादी मोहम्मडन लॉ के तहत करता है, तो उसकी दूसरी, तीसरी या चौथी शादी अमान्य (void) नहीं मानी जाएगी, और उस पर धारा 494 लागू नहीं होगी।
लेकिन यदि फैमिली कोर्ट किसी दूसरी शादी को बातिल (अवैध) घोषित करती है, तो उस स्थिति में IPC की धारा 494 लागू हो सकती है।
2. यदि कोई व्यक्ति हिंदू विवाह अधिनियम, विशेष विवाह अधिनियम, ईसाई या पारसी विवाह अधिनियम के तहत पहली शादी करता है और फिर इस्लाम धर्म अपनाकर दूसरी शादी करता है, तो यह दूसरी शादी अवैध मानी जाएगी और उस पर सीधा धारा 494 लागू होगी।
3. कोर्ट ने यह भी दोहराया कि मुस्लिम पर्सनल लॉ के तहत किए गए विवाह की वैधता निर्धारित करने का अधिकार फैमिली कोर्ट को है।
"यूनिफॉर्म सिविल कोड" की मांग को फिर बल
हाईकोर्ट ने अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट के चर्चित सारला मुद्गल और लिली थॉमस मामलों का हवाला देते हुए, अनुच्छेद 44 के अंतर्गत एक समान नागरिक संहिता (Uniform Civil Code) लागू करने की आवश्यकता पर भी बल दिया।
माता-पिता की मर्जी के खिलाफ विवाह करने वालों को नहीं मिलेगा पुलिस संरक्षण
उसी सुनवाई के दौरान अदालत ने यह भी टिप्पणी की कि यदि कोई जोड़ा माता-पिता की इच्छा के विरुद्ध विवाह करता है, तो उन्हें स्वतः पुलिस सुरक्षा का दावा करने का अधिकार नहीं है।
इलाहाबाद हाईकोर्ट का यह फैसला बहुविवाह की प्रथा और उसके कानूनी व नैतिक आयामों पर महत्वपूर्ण टिप्पणी करता है। यह न केवल मुस्लिम पर्सनल लॉ की व्याख्या करता है, बल्कि समानता, न्याय और सामाजिक जिम्मेदारी के मूल्यों पर भी गहराई से प्रकाश डालता है।