आषाढ़ माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी को देवशयनी एकादशी के नाम से जाना जाता है। यह दिन हर साल उन श्रद्धालुओं के लिए खास होता है जो धर्म और अध्यात्म से गहराई से जुड़े होते हैं। मान्यता है कि देवशयनी एकादशी से ही भगवान विष्णु चार महीनों के लिए योगनिद्रा में चले जाते हैं, और इस पावन समय को चातुर्मास कहा जाता है।
इस अवधि में मुंडन संस्कार, शादी-विवाह, सगाई, गृह-प्रवेश जैसे सभी शुभ और मांगलिक कार्यों पर प्रतीकात्मक रूप से विराम लग जाता है। इस वर्ष 6 जुलाई को यह पवित्र एकादशी मनाई जाएगी। माना जाता है कि यह दिन श्रीहरि विष्णु और मां लक्ष्मी की पूजा-अर्चना के लिए अत्यंत शुभ और फलदायक होता है।
जो भक्त इस दिन व्रत रखते हैं, उनके लिए एकादशी व्रत कथा का पाठ करना अत्यंत आवश्यक माना गया है। यह सिर्फ एक धार्मिक प्रक्रिया नहीं, बल्कि भगवान विष्णु की कृपा पाने का एक आध्यात्मिक सेतु भी है। ऐसा विश्वास किया जाता है कि इस कथा का श्रवण या पाठ करने से सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं, पापों का नाश होता है और मृत्यु के बाद मोक्ष की प्राप्ति होती है।
देवशयनी एकादशी व्रत कथा: श्रीकृष्ण द्वारा वर्णित अमूल्य गाथा
इस एकादशी की कथा स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने धर्मराज युधिष्ठिर को सुनाई थी। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, सतयुग में मांधाता नामक एक चक्रवर्ती सम्राट राज्य करते थे। उनका राज्य सुख, शांति और समृद्धि का प्रतीक था। लेकिन एक बार तीन वर्षों तक वर्षा न होने के कारण भयंकर अकाल पड़ गया, जिससे राज्य में त्राहि-त्राहि मच गई।
अकाल के कारण यज्ञ, हवन, पिंडदान और व्रत जैसे धार्मिक कार्य ठप पड़ने लगे। दुखी प्रजा ने अपने राजा से अपनी पीड़ा साझा की। राजा मांधाता स्वयं भी इस संकट से विचलित हो उठे थे। वे सोच में पड़ गए कि भला उन्होंने ऐसा कौन-सा पाप कर दिया जो यह विपत्ति आई।
इस समाधान की तलाश में वे अपनी सेना के साथ जंगल की ओर निकल पड़े। वहां भटकते-भटकते वे ब्रह्माजी के पुत्र महर्षि अंगिरा के आश्रम पहुंचे। ऋषि ने राजा से उनके आने का कारण पूछा। राजा ने हाथ जोड़कर अपनी चिंता बताई और समाधान मांगा।
महर्षि अंगिरा ने गहरी शांति से उत्तर दिया – "यह सतयुग है, जहां छोटे से पाप की भी बड़ी सजा मिलती है।" उन्होंने राजा मांधाता को आषाढ़ शुक्ल एकादशी का व्रत विधिपूर्वक करने की सलाह दी और कहा कि इस व्रत के प्रभाव से वर्षा अवश्य होगी।
राजा मांधाता ने ऋषि के निर्देश को पूरी श्रद्धा से अपनाया और राजधानी लौटकर पद्मा एकादशी का विधिपूर्वक व्रत किया। चारों वर्णों के साथ किए गए इस पुण्य व्रत के प्रभाव से राज्य में मूसलधार वर्षा हुई और अकाल समाप्त हो गया।
ब्रह्म वैवर्त पुराण में देवशयनी एकादशी का अत्यधिक महत्व बताया गया है। इस पावन व्रत के पालन से भक्त को ईश्वर का सान्निध्य प्राप्त होता है, समस्त पापों का विनाश होता है और हर मनोकामना पूर्ण होती है।