
जयपुर: महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम, 2005 यानी मनरेगा में किए जा रहे प्रस्तावित संशोधनों और नए ‘विकसित भारत–गारंटी फॉर रोजगार एंड आजीविका मिशन (ग्रामीण)’ कानून को लेकर देशभर के सामाजिक संगठनों में गहरी नाराजगी है। संगठनों का कहना है कि यह नया कानून मनरेगा का विकल्प नहीं, बल्कि उसे कमजोर करने की कोशिश है। एक तरफ केंद्र सरकार इसे रोजगार के दिनों को 100 से बढ़ाकर 125 करने वाला कदम बता रही है, वहीं दूसरी ओर सामाजिक कार्यकर्ताओं का आरोप है कि यह व्यवस्था गरीबों की आजीविका पर सीधा हमला है।
इस पूरे विवाद में सामाजिक कार्यकर्ता निखिल डे का बयान खासा चर्चा में है। उन्होंने कहा कि मनरेगा में बदलाव करना करोड़ों गरीब भारतीयों के पेट पर लात मारने जैसा है। उनके मुताबिक, जिस कानून को हासिल करने के लिए वर्षों तक संघर्ष किया गया, उसे बिना व्यापक चर्चा के जल्दबाजी में बदला जा रहा है, जिसके गंभीर और दूरगामी परिणाम सामने आ सकते हैं।
“125 दिन तो दूर, 25 दिन का काम भी मुश्किल”
सूचना एवं रोजगार अधिकार अभियान राजस्थान से जुड़े निखिल डे ने चेतावनी देते हुए कहा कि नए कानून के लागू होने के बाद गरीब मजदूरों को 125 दिन का रोजगार तो दूर, 25 दिन का काम भी मिलना मुश्किल हो सकता है। उन्होंने याद दिलाया कि मनरेगा कानून को बनवाने में 11 साल से ज्यादा का संघर्ष लगा था, लेकिन अब कुछ ही घंटों में उसे बदल दिया गया। उनके अनुसार, यह न सिर्फ लोकतांत्रिक प्रक्रिया का अपमान है, बल्कि ग्रामीण गरीबों के भविष्य के साथ भी खिलवाड़ है।
ग्रामीण मजदूरों की जीवनरेखा पर खतरा
निखिल डे का कहना है कि मनरेगा को लंबे समय तक ग्रामीण गरीबों की जीवनरेखा माना गया। पिछले दो दशकों में इस कानून ने ग्रामीण आजीविका सुरक्षा की मजबूत नींव रखी और काम के कानूनी अधिकार को स्थापित किया। यह एक मांग-आधारित और विकेंद्रीकृत व्यवस्था थी, जिसमें ग्राम सभाओं की अहम भूमिका थी। इसके विपरीत, नया ‘वीबी-जी राम’ कानून 18 दिसंबर 2025 को लोकसभा में हंगामे और विरोध के बीच ध्वनिमत से पारित किया गया, जबकि मनरेगा को 2005 में सर्वसम्मति से मंजूरी मिली थी। निखिल डे ने इसे उन करोड़ों असंगठित ग्रामीण मजदूरों के लिए बड़ा झटका बताया, जो मनरेगा के सहारे अपना गुजारा करते रहे हैं।
मनरेगा बनाम जी राम जी: क्या हैं बड़े फर्क
सामाजिक संगठनों के अनुसार, मनरेगा और प्रस्तावित जी राम जी कानून के बीच कई बुनियादी अंतर हैं। मनरेगा एक कानूनी अधिकार है, जिसमें काम मांगने पर सरकार को रोजगार देना अनिवार्य होता है, जबकि नए कानून में रोजगार को अधिकार की जगह एक योजना या प्रावधान के रूप में देखा जा रहा है। मनरेगा में समय पर काम न मिलने पर बेरोजगारी भत्ता देने की स्पष्ट व्यवस्था है, लेकिन जी राम जी कानून में इसकी ठोस गारंटी नहीं दिखती। ग्राम सभा और सोशल ऑडिट मनरेगा की रीढ़ रहे हैं, जबकि नए कानून में इनकी भूमिका सीमित या कमजोर होने की आशंका जताई जा रही है। मजदूरी दर और समयबद्ध भुगतान मनरेगा में कानूनी रूप से तय हैं, लेकिन नए कानून में इन्हें लेकर स्पष्टता नहीं है, जिससे मजदूरों के शोषण का खतरा बढ़ सकता है। जहां मनरेगा एक सामाजिक सुरक्षा कानून है, वहीं जी राम जी को परियोजना या स्कीम आधारित मॉडल बताया जा रहा है।
पलायन का खतरा फिर से बढ़ने की आशंका
निखिल डे ने कहा कि मनरेगा का उद्देश्य हर ग्रामीण परिवार को साल में कम से कम 100 दिन का सम्मानजनक रोजगार देना था, लेकिन जमीनी हकीकत पहले ही इससे काफी दूर है। मजदूरी भुगतान में महीनों की देरी, काम की कमी और राज्यों को समय पर बजट न मिलना मजदूरों की परेशानियों को बढ़ा रहा है। ऐसे में अगर मनरेगा कमजोर हुआ, तो गांवों से शहरों की ओर पलायन एक बार फिर तेज हो सकता है।
बजट कटौती ने बढ़ाई मुश्किलें
उन्होंने केंद्र सरकार पर मनरेगा के बजट में लगातार कटौती करने का आरोप लगाया। निखिल डे के अनुसार, जब मजदूरों को समय पर मेहनताना नहीं मिलता, तो वे कर्ज के जाल में फंस जाते हैं या मजबूरी में पलायन करते हैं। यह स्थिति संविधान में दिए गए गरिमापूर्ण जीवन के अधिकार के खिलाफ है। उन्होंने जोर देकर कहा कि मनरेगा सिर्फ एक रोजगार योजना नहीं, बल्कि सामाजिक सुरक्षा का मजबूत आधार है, जिसने ग्रामीण अर्थव्यवस्था को सहारा दिया और महिलाओं को आर्थिक रूप से सशक्त बनाया।
सरकार से मनरेगा को मजबूत करने की मांग
निखिल डे ने सरकार से अपील की कि मनरेगा को कमजोर करने के बजाय इसे और सशक्त किया जाए। बजट बढ़ाने, मजदूरी भुगतान को समयबद्ध और पारदर्शी बनाने की जरूरत है। उन्होंने चेतावनी दी कि यदि मनरेगा की अनदेखी जारी रही, तो इसका सबसे बड़ा खामियाजा देश के सबसे कमजोर तबके को भुगतना पड़ेगा, जिसकी जिम्मेदारी अंततः सरकार को लेनी होगी।














