
लगभग दो दशक पुराने 2006 के मुंबई लोकल ट्रेन धमाकों के मामले में बड़ा न्यायिक उलटफेर देखने को मिला है। बॉम्बे हाईकोर्ट ने सोमवार को इस केस में दोषी ठहराए गए सभी 12 आरोपियों को बरी कर दिया है। अदालत ने अपने फैसले में अभियोजन पक्ष की जांच पर गंभीर सवाल उठाते हुए कहा कि प्रस्तुत किए गए सबूत न केवल अविश्वसनीय थे, बल्कि कुछ कबूलनामे भी प्रताड़ना के आधार पर लिए गए प्रतीत होते हैं।
यह फैसला हाईकोर्ट की न्यायमूर्ति रेवती मोहिते डेरे और न्यायमूर्ति गौरी गोडसे की खंडपीठ ने सुनाया, जिसने लगभग 20 वर्षों से जेल में बंद इन आरोपियों को राहत दी। पीठ ने कहा कि गवाहों की विश्वसनीयता संदिग्ध थी, पहचान परेड में खामियां थीं और जिन कबूलनामों के आधार पर सजा दी गई थी, वे संदिग्ध परिस्थितियों में लिए गए थे।
अचानक सामने कैसे आए गवाह
कोर्ट ने साफ कहा कि "कुछ गवाह वर्षों तक चुप रहे और फिर अचानक पहचान करने लगे, यह व्यवहार सामान्य नहीं कहा जा सकता।" इसके अलावा, अदालत ने यह भी पाया कि कुछ गवाह पहले से ही कई अन्य मामलों में भी बयान दे चुके थे, जिससे उनकी गवाही की निष्पक्षता पर सवाल खड़े होते हैं।
सुनवाई के दौरान यह तथ्य भी सामने आया कि कई गवाहों की गवाही मुकदमे के दौरान दर्ज ही नहीं की गई, और जिन जगहों से आरडीएक्स जैसे विस्फोटक बरामद किए गए, वहां से फॉरेंसिक जांच प्रयोगशाला तक सबूत की अखंडता प्रमाणित नहीं की जा सकी।
इन सभी खामियों को ध्यान में रखते हुए अदालत ने कहा कि अभियोजन पक्ष आरोप साबित करने में पूरी तरह असफल रहा और मामला "संदेह से परे साबित नहीं किया जा सका"। इसी आधार पर 2015 में MCOCA अदालत द्वारा सुनाई गई मौत और आजीवन कारावास की सज़ाएं रद्द कर दी गईं।
7 ट्रेनों में विस्फोट, 189 मरे, 800 से ज्यादा घायल
गौरतलब है कि वर्ष 2006 में हुए इन सिलसिलेवार धमाकों में 11 मिनट के भीतर सात ट्रेनों में विस्फोट हुए थे, जिनमें 189 लोगों की मौत हो गई थी और 800 से अधिक लोग घायल हुए थे। ये धमाके मुंबई की भीड़भाड़ भरी लोकल ट्रेनों के फर्स्ट क्लास डिब्बों में हुए थे और देश के इतिहास में इसे सबसे घातक आतंकी हमलों में से एक माना जाता है।
इस केस में दोषी ठहराए गए 12 में से एक आरोपी कमाल अंसारी की 2021 में नागपुर जेल में कोविड के कारण मौत हो गई थी, जबकि बाकी 11 ने 19 साल जेल में बिताए और अब उन्हें रिहा किया जा रहा है।
बचाव पक्ष की ओर से पैरवी कर रहे वकील युग मोहित चौधरी ने कहा कि “यह फैसला उन तमाम लोगों के लिए आशा की किरण है जो बिना अपराध के वर्षों से सलाखों के पीछे हैं।” इस पर अदालत ने संक्षिप्त जवाब में कहा, “हमने अपना कर्तव्य निभाया है।”
सरकारी वकील राजा ठकारे ने इस फैसले को स्वीकार करते हुए कहा कि यह निर्णय भविष्य के मामलों के लिए दिशा दिखाने वाला फैसला साबित हो सकता है।
हालांकि यह फैसला कई सवालों को जन्म दे रहा है—क्या न्याय में हुई यह देरी भी अन्याय नहीं है? 19 साल तक सलाखों के पीछे रहने के बाद अब निर्दोष करार दिए गए लोग किससे जवाब मांगेंगे? लेकिन एक बात तो स्पष्ट है कि यह फैसला भारतीय न्याय व्यवस्था में निष्पक्षता और आत्ममंथन दोनों का प्रतीक है।














