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राजस्थान पत्रिका को लगा झटका, मजीठिया वेतन माँगने पर पत्रकार को बर्खास्त करना पड़ा महंगा, हाईकोर्ट ने दिया यह आदेश

राजस्थान पत्रिका द्वारा पत्रकार की बर्खास्तगी पर मध्यप्रदेश हाईकोर्ट ने सख्त रुख अपनाते हुए इसे अवैध ठहराया। कोर्ट ने पत्रकार को सेवा में बहाल करने, बकाया वेतन और सेवा लाभ देने का आदेश दिया। बर्खास्तगी को मजीठिया वेतन मांगने पर प्रतिशोध की कार्रवाई माना गया।

Posts by : Rajesh Bhagtani | Updated on: Mon, 26 May 2025 7:18:49

राजस्थान पत्रिका को लगा झटका, मजीठिया वेतन माँगने पर पत्रकार को बर्खास्त करना पड़ा महंगा, हाईकोर्ट ने दिया यह आदेश

ख्यातनाम समाचार समूह राजस्थान पत्रिका को अपने एक पत्रकार को नौकरी से निकालना भारी पड़ गया है। मध्यप्रदेश हाईकोर्ट की जबलपुर खंडपीठ ने इस बर्खास्तगी को गैरकानूनी करार देते हुए पत्रकार की सेवा बहाल करने, बकाया वेतन चुकाने और सभी सेवा लाभों सहित पुनर्नियुक्ति का आदेश सुनाया है। कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि पत्रिका प्रबंधन ने जिस सोशल मीडिया पोस्ट को आधार बनाकर अनुशासनात्मक कार्रवाई की, उसके समर्थन में कोई सबूत प्रस्तुत नहीं किया गया।

पत्रकार को बिना लेबर कोर्ट की पूर्व स्वीकृति के बर्खास्त किया गया था, जो औद्योगिक विवाद अधिनियम की धारा 33(2)(इ) का स्पष्ट उल्लंघन है। कोर्ट ने इस बिंदु पर सख्त रुख अपनाते हुए कहा कि जब तक लेबर कोर्ट से मंजूरी न मिले, तब तक बर्खास्तगी आदेश अधूरा और कानूनी रूप से अमान्य माना जाएगा। यही नहीं, कोर्ट ने यह भी माना कि प्रबंधन ने यह कार्रवाई मजीठिया वेतनमान की मांग उठाने के बाद प्रतिशोधवश की, जिससे कर्मचारी के मौलिक अधिकारों का भी उल्लंघन हुआ।

दरअसल, विजय कुमार शर्मा वर्ष 2002 से पत्रिका में कार्यरत थे और 2011 में उन्हें सब-एडिटर पद पर पदोन्नत किया गया। सुप्रीम कोर्ट द्वारा 2014 में मजीठिया वेतन बोर्ड की सिफारिशें लागू करने का निर्देश दिए जाने के बाद उन्होंने और उनके साथियों ने इसके पालन की मांग की। इसी के बाद उनका स्थानांतरण पहले बेंगलुरु, फिर भोपाल और फिर जगदलपुर कर दिया गया, जिसका उन्होंने विरोध करते हुए लेबर कोर्ट में मामला दायर कर दिया।

प्रबंधन ने इसी अवधि में सोशल मीडिया पर कथित पोस्ट के बहाने चार्जशीट जारी की और जून 2016 में सेवा समाप्ति का आदेश जारी कर दिया। जांच में न तो वह पोस्ट प्रस्तुत की गई, न ही कोई तकनीकी प्रमाण, और न ही कर्मचारी को पर्याप्त अवसर मिला। इसके बावजूद उन्हें दोषी ठहराकर निकाल दिया गया।

हाईकोर्ट ने पाया कि लेबर कोर्ट ने सेवा समाप्ति की अनुमति नहीं दी थी, बावजूद इसके कर्मचारी को हटा दिया गया। कोर्ट ने अपने निर्णय में सुप्रीम कोर्ट के “जयपुर ज़िला सहकारी भूमि विकास बैंक बनाम रामगोपाल शर्मा” मामले का हवाला देते हुए कहा कि जब स्वीकृति नहीं दी गई हो, तो बर्खास्तगी स्वयमेव शून्य मानी जाती है और कर्मचारी को सेवा में माना जाता है।

इस निर्णय को देशभर के पत्रकार संगठनों ने श्रमिक अधिकारों की बड़ी जीत बताया है। पत्रकार संगठनों ने मांग की है कि अब सरकारें यह सुनिश्चित करें कि मीडिया संस्थानों में मजीठिया वेतनमान की सिफारिशों को बिना देरी के लागू किया जाए और पत्रकारों को कानूनी सुरक्षा प्रदान की जाए।

कोर्ट के आदेश के अनुसार, विजय कुमार शर्मा की सेवा तत्काल प्रभाव से बहाल की जाएगी, उन्हें बकाया वेतन, सेवा निरंतरता, और अन्य सभी लाभ दिए जाएंगे। वहीं प्रबंधन की याचिका को पूरी तरह खारिज कर दिया गया है।

न्यायालय के आदेश का सारांश

विजय कुमार शर्मा की सेवा बहाल की जाए, सभी बकाया वेतन, लाभ और सेवा निरंतरता दी जाए, चार्जशीट और आंतरिक जांच रिपोर्ट को अवैध और असंवैधानिक करार दिया।

हाईकोर्ट ने क्या कहा?

आंतरिक जांच प्रक्रिया दोषपूर्ण थी, कर्मचारी को पर्याप्त अवसर नहीं दिया गया। चार्जशीट में लगाए गए आरोपों के समर्थन में कोई ठोस साक्ष्य नहीं थे, विशेष रूप से फेसबुक पोस्ट का कोई सबूत नहीं दिखाया गया। धारा 33(2)(b) के तहत आवश्यक स्वीकृति बिना लिए सेवा समाप्त करना अवैध है। प्रबंधन की कार्रवाई, विशेष रूप से वेतन संबंधी मांगों के बाद हुई, दबाव और बदले की भावना को दर्शाती है।

न्यायालय ने कहा कि जब कोई कर्मचारी अपने वैधानिक अधिकारों की मांग करता है, तो संस्थान उसे दंडित नहीं कर सकता। यह श्रमिकों के अधिकारों के विरुद्ध और प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन है।

लेबर कोर्ट पर भी टिप्पणी


हाईकोर्ट ने यह भी कहा कि लेबर कोर्ट का आकलन एकतरफा था। एक ओर कोर्ट ने माना कि बर्खास्तगी आदेश अवैध था और स्वीकृति नहीं दी जा सकती, लेकिन दूसरी ओर पुनर्नियुक्ति का आदेश नहीं दिया, जो कि सुप्रीम कोर्ट के “Jaipur Zila Sahakari Bhoomi Vikas Bank Ltd. बनाम रामगोपाल शर्मा” फैसले की भावना के विपरीत था।

प्रबंधन की मंशा पर सवाल

कोर्ट ने माना कि पत्रिका प्रबंधन ने जानबूझकर मजीठिया वेतन की देनदारी से बचने के लिए अनुशासनात्मक कार्रवाई का सहारा लिया। यह न केवल पत्रकारिता की स्वतंत्रता पर प्रहार है, बल्कि संस्थागत जवाबदेही को कमजोर करने की साजिश भी मानी जा सकती है।

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