बॉलीवुड की दुनिया में कुछ फिल्में होती हैं जो सिर्फ बॉक्स ऑफिस पर नहीं, बल्कि दर्शकों के दिलों पर भी लंबे समय तक राज करती हैं। फिल्म उद्योग के ख्यातनाम निर्माता निर्देशक कथाकार रहे बी.आर. चोपड़ा (बलदेव राज चोपड़ा) ने ऐसी ही एक कहानी की कल्पना 1960 के दशक में यूरोप की अपनी यात्रा के दौरान की थी, जब वे एक रिटायरमेंट होम गए थे और गृहस्थों की कहानी से प्रेरित हुए थे। इस फिल्म की पटकथा को पूरा करने में उन्हें 13 साल (1973) का लम्बा समय लगा, लेकिन चोपड़ा इसे अपनी दूसरी फिल्मों और अस्सी के दशक में टीवी सीरियल महाभारत में व्यस्त होने के कारण इसे नहीं बना पाए। अन्त में इस फिल्म ने वर्ष 2002 में मूर्त रूप लिया और वर्ष 2003 में यह फिल्म दर्शकों के सामने आई। उम्मीद है आप लोगों ने फिल्म के दिए गए परिचय के आधार पर इसे पहचान लिया होगा नहीं तो कोई बात नहीं, हम आपको इस फिल्म का नाम बता देते हैं। यह फिल्म है बागबान, जिसे बी.आर. चोपड़ा के बेटे रवि चोपड़ा ने निर्देशित किया था।
बॉलीवुड के दो दिग्गज सितारे — अमिताभ बच्चन और हेमा मालिनी — जिनकी जोड़ी ने ‘सत्ते पे सत्ता’, ‘नसीब’ और ‘त्रिशूल’ जैसी फिल्मों में दर्शकों के दिल जीते, उन्होंने 2003 में फिल्म ‘बागबान’ के ज़रिए एक बार फिर साथ आकर एक भावुक और सशक्त कहानी के ज़रिए समाज के एक संवेदनशील पहलू को सामने रखा।
1960 के दशक में जन्मी थी ‘बागबान’ की कल्पना
इस फिल्म की कहानी वास्तव में दशकों पहले लिखी गई थी। 1960 के दशक में, निर्माता-निर्देशक बी.आर. चोपड़ा जब यूरोप की यात्रा पर थे, तो उन्होंने एक रिटायरमेंट होम का दौरा किया। वहां बुजुर्गों की स्थिति ने उन्हें झकझोर दिया। वहीं से ‘बागबान’ की मूल प्रेरणा मिली — एक ऐसे दंपति की कहानी जो अपनी पूरी जिंदगी बच्चों के लिए समर्पित कर देते हैं, लेकिन बुढ़ापे में वही बच्चे उन्हें सहारा देने से कतराते हैं।
इस अनुभव के बाद उन्होंने 1973 में पटकथा पूरी कर ली, लेकिन फिल्म का निर्माण शुरू करने में उन्हें लगभग तीन दशक लग गए, क्योंकि वे अन्य परियोजनाओं में व्यस्त रहे। अंततः जुलाई 2002 में फिल्म सिटी, मुंबई में सिनेमैटोग्राफर बरुन मुखर्जी के साथ मुख्य फोटोग्राफी शुरू हुई और इस आइडिया को स्क्रीन पर उतारने का सपना साकार हुआ।
10 करोड़ के बजट में बनी, 43 करोड़ की कमाई की
‘बागबान’ को ₹10 करोड़ की लागत से बनाया गया था। यह फिल्म 2 अक्टूबर 2003 को लीड्स इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में प्रीमियर हुई और 3 अक्टूबर को दुनियाभर में रिलीज़ की गई। फिल्म ने ₹43.11 करोड़ की कमाई की और उस साल की पांचवीं सबसे अधिक कमाई करने वाली फिल्म बन गई।
भावनात्मक परतों से सजी बुजुर्ग जोड़े की वो कहानी, जिसने हर बेटे-बेटी को आईना दिखाया
बागबान की कहानी जितनी साधारण थी, उतनी ही प्रभावशाली। एक ऐसे बुजुर्ग दंपति की दास्तान, जिन्होंने अपनी पूरी जिंदगी अपने बच्चों के लिए न्योछावर कर दी। लेकिन रिटायरमेंट के बाद जब उन्हें बच्चों का सहारा चाहिए था, तब वे उन्हें एक-दूसरे से अलग कर देते हैं—पिता एक बेटे के साथ, मां दूसरे बेटे के साथ। जीवन के इस अंतिम पड़ाव पर उनका बिछोह उनके आत्मसम्मान को चीर देता है।
और यहीं से कहानी मोड़ लेती है। एंट्री होती है सौतेले बेटे आलोक (सलमान खान) की, जो अपने अपनापन, इज्जत और प्रेम से उनके जीवन में फिर से रंग भर देता है। फिल्म ने सशक्तता के साथ दर्शकों के मन में एक सवाल उठाया—क्या माता-पिता का प्यार सिर्फ बच्चों की जिम्मेदारी तक सीमित रह जाना चाहिए?
संवेदनशील अभिनय और भावनात्मक प्रभाव
जब फिल्म रिलीज हुई, तब अमिताभ 61 और हेमा मालिनी 55 वर्ष की थीं — एक उम्र जब मुख्यधारा की फिल्मों में मुख्य भूमिकाएं मिलना कम हो जाता है। एक ऐसी उम्र जहां अक्सर कलाकारों को साइड रोल में डाल दिया जाता है। लेकिन इस फिल्म ने उस सोच को पूरी तरह तोड़ दिया। बिग बी और ड्रीम गर्ल की कैमिस्ट्री, भावनात्मक संवाद और बारीक अभिनय ने यह साबित कर दिया कि कलाकार का जलवा उम्र नहीं, उसकी कला तय करती है। फिल्म में सलमान खान, महिमा चौधरी, अमन वर्मा और सौम्या टंडन जैसे कलाकारों ने भी सहायक भूमिकाओं में अच्छा काम किया, लेकिन दर्शकों का दिल चुरा ले गए अमिताभ और हेमा।
संगीत और संपादन की भूमिका
फिल्म का साउंडट्रैक आदेश श्रीवास्तव और उत्तम सिंह ने तैयार किया, जबकि गीत लिखे समीर ने। फिल्म का संपादन शैलेंद्र डोके, गॉडफ्रे गोंसाल्वेस और शशि माने ने किया। संगीत ने फिल्म के भावनात्मक प्रवाह को और भी मजबूत किया, खासकर ‘मैं यहाँ तू वहाँ’ और ‘होते होते हो गया प्यार’ जैसे गाने आज भी लोगों की भावनाओं को छू जाते हैं।
मिली-जुली समीक्षाएं, लेकिन दर्शकों ने बनाया क्लासिक
फिल्म को आलोचकों से मिली-जुली प्रतिक्रिया मिली। कुछ ने इसकी कहानी को साधारण बताया और अमिताभ-हेमा की केमिस्ट्री को कमजोर कहा, लेकिन दर्शकों ने इसे दिल से स्वीकारा। अमिताभ बच्चन और हेमा मालिनी को फिल्मफेयर अवॉर्ड्स में बेस्ट एक्टर और बेस्ट एक्ट्रेस के लिए नॉमिनेट किया गया और दोनों ने स्क्रीन अवॉर्ड्स में ‘जोड़ी नंबर 1’ का खिताब जीता।
आज भी कायम है इसकी लोकप्रियता
टीवी पर बार-बार प्रसारित होने और OTT प्लेटफॉर्म्स पर उपलब्ध होने की वजह से ‘बागबान’ आज भी एक पंथ क्लासिक बन चुकी है। फिल्म आज भी जब देखी जाती है, तो आंखों में नमी और दिल में रिश्तों की अहमियत की कसक ज़रूर छोड़ जाती है।
21 साल बाद भी उतनी ही असरदार, उतनी ही जरूरी
आज जब हम 2025 में हैं और बागबान के रिलीज को 21 साल बीत चुके हैं, तब भी इसका संदेश उतना ही मौलिक और महत्वपूर्ण लगता है। यह सिर्फ एक फिल्म नहीं थी, बल्कि एक सामाजिक बयान थी—जिसने बुजुर्गों की उपेक्षा, परिवार की जटिलताएं और आत्मसम्मान जैसे विषयों को सीधे और सशक्त ढंग से सामने रखा।
हर वो इंसान जिसने कभी अपने माता-पिता को उपेक्षित महसूस कराया हो, इस फिल्म को देखकर जरूर भीतर से हिल गया होगा। और यही सिनेमा की सबसे बड़ी ताकत है—वो आपको सोचने पर मजबूर करता है।
बागबान सिर्फ एक सफल फिल्म नहीं, एक भावनात्मक अनुभव थी। यह उस दौर की फिल्म थी जब सिनेमा सिर्फ मनोरंजन नहीं, एक जिम्मेदारी हुआ करता था। अमिताभ बच्चन और हेमा मालिनी जैसे कलाकारों ने साबित किया कि अगर कहानी मजबूत हो और अभिनय सच्चा हो, तो उम्र मायने नहीं रखती। आज भी जब ‘बागबान’ टीवी पर आती है, आंखें नम हो जाती हैं और दिल फिर से रिश्तों की अहमियत समझ जाता है।
‘बागबान’ सिर्फ एक फिल्म नहीं, एक सामाजिक दस्तावेज़ है — जो बताता है कि माता-पिता के साथ कैसा व्यवहार होना चाहिए और बुजुर्गों के सम्मान को किस तरह संरक्षित किया जा सकता है। बी.आर. चोपड़ा का सपना, अमिताभ और हेमा की परिपक्व अदाकारी और रवि चोपड़ा का संवेदनशील निर्देशन इस फिल्म को भारतीय सिनेमा की कालजयी धरोहर बनाते हैं।