राजस्थान सरकार के चिकित्सा विभाग द्वारा अस्पतालों में दानदाताओं से मिलने वाले सहयोग पर नई शर्तें लगाने के आदेश को लेकर विवाद खड़ा हो गया है। दान की प्रक्रिया को नियमबद्ध करते हुए जहां सरकार ने समिति की सिफारिश अनिवार्य कर दी है, वहीं पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने इस आदेश पर कड़ा हमला बोलते हुए सरकार को "दिवालिया" करार दिया है।
आदेश में क्या है खास
चिकित्सा विभाग के नए आदेश के अनुसार, सरकारी अस्पतालों में अब किसी भी तरह की दान सामग्री—जैसे एंबुलेंस, चिकित्सा उपकरण, फर्नीचर आदि—सीधे स्वीकार नहीं किए जाएंगे। इसके लिए संबंधित अस्पताल की ओर से गठित "दान स्वीकार समिति" की अनुशंसा जरूरी होगी। समिति में अस्पताल प्रभारी, वरिष्ठ चिकित्सा अधिकारी समेत अन्य प्रतिनिधि शामिल होंगे।
विशेष रूप से यदि दान में एंबुलेंस दी जा रही है तो उस वाहन के लिए ड्राइवर, ईंधन और पांच वर्षों तक रखरखाव की जिम्मेदारी भी दानदाता को उठानी होगी। यह शर्त लागू किए बिना दान स्वीकार नहीं किया जाएगा।
राजस्थान की भाजपा सरकार के चिकित्सा विभाग ने एक आदेश जारी कर भामाशाहों द्वारा अस्पतालों में दान दी जाने वाली एबुंलेंस, जांच मशीनों, उपकरणों के साथ ही इन्हें चलाने के लिए 5 वर्ष का डीजल, ड्राइवर तथा ऑपरेटर की सैलरी भी दानदाता से ही लेने का आदेश निकाला है।
— Ashok Gehlot (@ashokgehlot51) June 13, 2025
ऐसा लगता है राजस्थान की…
गहलोत का तीखा हमला
पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने इस आदेश को लेकर सोशल मीडिया पर भाजपा सरकार पर निशाना साधते हुए लिखा कि यह आदेश सरकार की "दिवालिया मानसिकता" को दर्शाता है। उन्होंने कहा कि भामाशाह वर्षों से अस्पतालों की जरूरत के अनुसार सामग्री दान करते आए हैं, जिससे मरीजों को सीधा लाभ मिला है।
उन्होंने सवाल किया कि जब सरकार दानदाताओं से इतने बोझिल और कठिन नियमों में सहयोग मांग रही है, तो वह निवेशकों को छूट और सुविधाएं कैसे दे पाएगी?
गहलोत का निवेश पर भी तंज
गहलोत ने सरकार के "राइजिंग राजस्थान" अभियान पर भी तंज कसते हुए कहा कि एक ओर सरकार 35 लाख करोड़ के निवेश के MOU कर रही है, दूसरी ओर वह दान में आ रही सामग्री को भी संभालने की स्थिति में नहीं है। यदि सरकार दानदाताओं को भी निराश करेगी, तो निवेशकों को कैसे आश्वस्त करेगी?
राजस्थान में अस्पतालों में दान को लेकर लागू की गई नई नीति को लेकर राजनीतिक विवाद गरमा गया है। जहां सरकार इसे व्यवस्था में पारदर्शिता और जिम्मेदारी लाने का प्रयास बता रही है, वहीं विपक्ष इसे जनसेवा में बाधा और दानदाताओं को हतोत्साहित करने वाला कदम बता रहा है। आने वाले समय में यह मुद्दा स्वास्थ्य सेवाओं और राजनीतिक बहस का एक अहम केंद्र बन सकता है।