
मंगलवार, 22 जुलाई 2025 को देश की सर्वोच्च अदालत में एक बेहद महत्वपूर्ण संवैधानिक प्रश्न पर सुनवाई शुरू हुई। सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की संविधान पीठ यह तय करेगी कि क्या न्यायपालिका राष्ट्रपति को किसी विधेयक को मंजूरी देने या उस पर निर्णय लेने का आदेश दे सकती है। यह मामला भारतीय संविधान की शक्ति-संरचना और सरकार के तीनों स्तंभों के बीच संतुलन से जुड़ा है।
पृष्ठभूमि: सुप्रीम कोर्ट का पूर्व आदेश और विवाद की शुरुआत
मामला उस समय चर्चा में आया जब कुछ राज्यों की याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रपति और राज्यपालों को निर्देश दिया था कि वे विधानसभा द्वारा पारित विधेयकों पर "उचित समय के भीतर" निर्णय लें। अदालत ने यह भी कहा था कि यदि विधेयक लटकाए गए या बिना उचित कारण के रोके गए तो फिर अदालत हस्तक्षेप कर सकती है। अदालत के इस निर्देश के बाद यह प्रश्न उठा कि क्या राष्ट्रपति, जो संविधान के अनुच्छेद 74 और 111 के अंतर्गत कार्य करते हैं, उन्हें सुप्रीम कोर्ट कोई निर्देश दे सकता है।
यह पूरा मामला अप्रैल में शुरू हुआ था। कोर्ट ने कहा था कि राज्यपाल द्वारा राष्ट्रपति के विचार के लिए रखे गए विधेयकों को राष्ट्रपति को तीन महीने के अंदर मंजूरी देनी होगी। जस्टिस जेबी पारदीवाला की अध्यक्षता वाली दो जजों की बेंच ने यह फैसला सुनाया था। इसके बाद मई में राष्ट्रपति ने सुप्रीम कोर्ट से पूछा था कि क्या ऐसा आदेश अदालत दे सकती है। राष्ट्रपति ने संविधान के आर्टिकल 143(1) के तहत सुप्रीम कोर्ट से सलाह मांगी थी। अब सुप्रीम कोर्ट ने अपनी ही बेंच के फैसले पर विचार करना शुरू कर दिया है। केंद्र सरकार का पक्ष सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता रखेंगे।
चीफ जस्टिस बीआर गवई की अगुवाई वाली बेंच ने कहा कि संविधान की व्याख्या को लेकर मतभेद की स्थिति है। इसलिए अटॉर्नी जनरल हमारी हेल्प करें। सॉलिसिटर जनरल इस मामले में केंद्र का पक्ष रखेंगे। इसके अलावा राज्यों से भी वकील तैनात होंगे। साफ है कि इस मामले में लंबी सुनवाई हो सकती है।
अनुच्छेद 143 और राष्ट्रपति की भूमिका
संविधान का अनुच्छेद 143 राष्ट्रपति को न्यायिक राय मांगने का अधिकार देता है, लेकिन इसमें स्पष्ट प्रावधान नहीं है कि न्यायपालिका सीधे राष्ट्रपति को आदेश दे सकती है या नहीं। अब संविधान पीठ इसी सवाल का जवाब खोज रही है कि राष्ट्रपति के अधिकार क्षेत्र में न्यायपालिका का दखल कहां तक सीमित या वैध है।
सुनवाई के दौरान सॉलिसिटर जनरल ने कोर्ट के पिछले आदेश पर आपत्ति जताई और कहा कि यह कार्यपालिका के अधिकार क्षेत्र में अतिक्रमण है। उन्होंने यह भी तर्क दिया कि राष्ट्रपति एक संवैधानिक पद है और उसे निर्देश देना संविधान की मूल भावना के खिलाफ हो सकता है। इस पर संविधान पीठ ने स्पष्ट किया कि वह केवल कानूनी प्रश्न का उत्तर ढूंढ रही है, न कि राष्ट्रपति के कार्यों में सीधा हस्तक्षेप कर रही है।
अनुच्छेद 143 और राष्ट्रपति की भूमिका
संविधान का अनुच्छेद 143 राष्ट्रपति को न्यायिक राय मांगने का अधिकार देता है, लेकिन इसमें स्पष्ट प्रावधान नहीं है कि न्यायपालिका सीधे राष्ट्रपति को आदेश दे सकती है या नहीं। अब संविधान पीठ इसी सवाल का जवाब खोज रही है कि राष्ट्रपति के अधिकार क्षेत्र में न्यायपालिका का दखल कहां तक सीमित या वैध है।
सुनवाई के दौरान सॉलिसिटर जनरल ने कोर्ट के पिछले आदेश पर आपत्ति जताई और कहा कि यह कार्यपालिका के अधिकार क्षेत्र में अतिक्रमण है। उन्होंने यह भी तर्क दिया कि राष्ट्रपति एक संवैधानिक पद है और उसे निर्देश देना संविधान की मूल भावना के खिलाफ हो सकता है। इस पर संविधान पीठ ने स्पष्ट किया कि वह केवल कानूनी प्रश्न का उत्तर ढूंढ रही है, न कि राष्ट्रपति के कार्यों में सीधा हस्तक्षेप कर रही है।
राज्यों की याचिकाएं और संवैधानिक संकट की आशंका
कुछ राज्यों ने आरोप लगाया है कि उनके द्वारा पारित विधेयकों को राज्यपाल जानबूझकर लंबित रख रहे हैं या राष्ट्रपति के पास भेजकर अनिश्चितता पैदा कर रहे हैं। इससे लोकतांत्रिक प्रक्रिया बाधित हो रही है और राज्यों के अधिकारों का हनन हो रहा है। इस संदर्भ में यह मामला और अधिक गंभीर हो गया है क्योंकि इससे केंद्र और राज्यों के संबंधों में संवैधानिक टकराव की आशंका बढ़ गई है।
यदि सुप्रीम कोर्ट यह निर्णय देता है कि वह राष्ट्रपति को निर्देश दे सकता है, तो यह भारत के संवैधानिक इतिहास में एक महत्वपूर्ण नजीर बनेगा। इससे न केवल राष्ट्रपति की भूमिका की व्याख्या स्पष्ट होगी, बल्कि विधायी प्रक्रियाओं की जवाबदेही भी तय हो सकती है। वहीं, अगर कोर्ट यह मानता है कि राष्ट्रपति को निर्देश देना न्यायपालिका के अधिकार क्षेत्र से बाहर है, तो इससे कार्यपालिका की स्वायत्तता की पुष्टि होगी।
अगली सुनवाई की तैयारी
अदालत ने सभी पक्षों को नोटिस जारी कर विस्तृत जवाब दाखिल करने को कहा है और अब अगली सुनवाई में इन उत्तरों के आधार पर विस्तृत चर्चा की जाएगी। माना जा रहा है कि यह बहस लंबे समय तक चलेगी और इसका असर भारतीय लोकतंत्र की बुनियादी संरचना पर पड़ेगा।
अदालत ने अब इस केस की अगली सुनवाई के लिए 29 जुलाई की तारीख तय की है। हालांकि इस मामले पर सुनवाई को लेकर ही तमिलनाडु के वकील पी. विल्सन और केरल का पक्ष रख रहे के.के वेणुगोपाल ने सवाल उठा दिए। उन्होंने कहा कि यह मसला तो अदालत में सुनवाई के योग्य ही नहीं है।














