महाकुंभ: नागा साधु बनने की 3 स्टेज, खींची जाती है जननांग की नस, अखाड़े वाले घर जाकर करते हैं पड़ताल

By: Sandeep Gupta Sun, 19 Jan 2025 3:30:49

महाकुंभ: नागा साधु बनने की 3 स्टेज, खींची जाती है जननांग की नस, अखाड़े वाले घर जाकर करते हैं पड़ताल

प्रयागराज महाकुंभ में शनिवार को एक साथ 5000 नागा साधु बन रहे हैं। सभी जूना अखाड़े के हैं। नागा साधु बनने वाले साधकों ने संगम घाट पर अपना और अपनी सात पीढ़ियों का पिंडदान किया। इसी के साथ उनकी नागा साधु बनने से पहले दूसरी स्टेज अवधूत बनने की प्रक्रिया शुरू हो गई है। संगम पर साधकों ने 17 पिंड बनाएं, जिनमें से 16 उनकी सात पीढ़ियों के थे और एक उनका स्वयं का था। 19 जनवरी की सुबह जूना अखाड़े के आचार्य महामंडलेश्वर अवधेशानंद गिरि जी महाराज मंत्र देंगे। इस बीच उनकी कठिन साधना चलती रहेगी। 29 जनवरी को मौनी अमावस्या को तड़के सभी को नागा साधु बनाया जाएगा।

13 अखाड़ों में सबसे बड़ा जूना अखाड़ा है, जिसके लगभग 5 लाख नागा साधु और महामंडलेश्वर संन्यासी हैं। इस बार महाकुंभ में 13 में से सात अखाड़ाें में 20 से 25 हजार नागा साधु बनाए जाने हैं। नागा साधुओं को सनातन धर्म का रक्षक कहा जाता है। आमतौर पर नागा बनने की उम्र 17 से 19 साल होती है। इसके तीन स्टेज हैं- महापुरुष, अवधूत और दिगंबर, लेकिन इससे पहले एक प्री-स्टेज यानी परख अवधि होती है। जो भी नागा साधु बनने के लिए अखाड़े में आवेदन देता है, उसे पहले लौटा दिया जाता है। फिर भी वो नहीं मानता, तब अखाड़ा उसकी पूरी पड़ताल करता है। अखाड़े वाले उम्मीदवार के घर जाते हैं। घर वालों को बताते हैं कि आपका बेटा नागा बनना चाहता है। घरवाले मान जाते हैं तो उम्मीदवार का क्रिमिनल रिकॉर्ड देखा जाता है।

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पहली स्टेज- महापुरुष : गुरु प्रेम कटारी से शिष्य की चोटी काटते हैं

परख अवधि में सफल होने वाले साधक को पहले संसारी जीवन में लौटने की सलाह दी जाती है। यदि वह फिर भी लौटने से इनकार करता है, तो उसे संन्यास जीवन की प्रतिज्ञा दिलाई जाती है। इसके बाद साधक को 'महापुरुष' घोषित किया जाता है और पंच संस्कार संपन्न किए जाते हैं। पंच संस्कार में शिव, विष्णु, शक्ति, सूर्य और गणेश को गुरु रूप में स्वीकार करना अनिवार्य होता है। इस दीक्षा के दौरान अखाड़े की ओर से साधक को नारियल, भगवा वस्त्र, जनेऊ, रुद्राक्ष, भभूत और नागाओं के प्रतीकात्मक आभूषण प्रदान किए जाते हैं। फिर गुरु अपनी प्रेम कटारी से शिष्य की चोटी काटते हैं, जो सांसारिक जीवन के त्याग का प्रतीक है। इस अवसर पर अखाड़े में शीरा और धनिया बांटने की परंपरा है।

दूसरा चरण - अवधूत: जीते जी खुद का पिंडदान, 108 डुबकियां अनिवार्य


महापुरुष से अवधूत बनने की प्रक्रिया भोर में लगभग चार बजे शुरू होती है। साधक को नित्य कर्म और साधना के पश्चात गुरु के साथ नदी तट पर ले जाया जाता है। वहां उसके शरीर के सभी बाल हटा दिए जाते हैं, जिससे वह नवजात शिशु जैसा प्रतीत हो। नदी में स्नान के बाद वह अपनी पुरानी लंगोटी त्याग कर नई लंगोटी धारण करता है। इसके पश्चात गुरु उसे जनेऊ पहनाते हैं और दंड, कमंडल एवं भभूत प्रदान करते हैं। साधक को 17 पिंडदान करना होता है, जिसमें 16 उसके पूर्वजों के लिए और 17वां स्वयं के लिए होता है। इस पिंडदान के साथ वह सांसारिक बंधनों से मुक्त होकर अखाड़े में नए जीवन के रूप में लौटता है। इसके बाद आधी रात को "विरजा" या "विजया यज्ञ" संपन्न किया जाता है। यज्ञ से पहले गुरु एक बार फिर साधक से पूछते हैं कि क्या वह सांसारिक जीवन में लौटना चाहता है। जब साधक इनकार करता है, तो गुरु उसे यज्ञ के उपरांत गुरुमंत्र प्रदान करते हैं। उसे धर्म ध्वजा के नीचे बैठाकर "ऊं नम: शिवाय" का जाप कराया जाता है।

अगले दिन सुबह चार बजे साधक को पुनः गंगा तट पर ले जाया जाता है। वहां 108 डुबकियां लगवाई जाती हैं, जो उसकी शुद्धि और नई पहचान का प्रतीक है। अंततः साधक दंड और कमंडल का त्याग करता है और अवधूत संन्यासी के रूप में स्वीकार कर लिया जाता है। इस 24 घंटे की कठिन प्रक्रिया के दौरान साधक को उपवास रखना अनिवार्य होता है।

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तीसरा चरण - दिगंबर: जननांग की नस खींची जाती, कुंभ के शाही स्नान के बाद बनते हैं नागा

'भारत में महाकुंभ' किताब के अनुसार, अवधूत बनने के बाद साधक को दिगंबर दीक्षा लेनी होती है, जो सबसे कठिन और गंभीर संस्कारों में से एक है। यह दीक्षा शाही स्नान से ठीक एक दिन पहले संपन्न की जाती है। इस प्रक्रिया के दौरान केवल कुछ गिने-चुने वरिष्ठ साधु ही मौजूद रहते हैं।

साधक को अखाड़े की धर्म ध्वजा के नीचे 24 घंटे तक बिना भोजन और जल के व्रत करना अनिवार्य होता है। इसके बाद तंगतोड़ संस्कार प्रारंभ होता है। इस संस्कार में सुबह तीन बजे अखाड़े के भाले के सामने अग्नि प्रज्वलित की जाती है और साधक के सिर पर पवित्र जल का छिड़काव किया जाता है।

इस प्रक्रिया का सबसे कठोर चरण तब होता है जब साधक के जननांग की एक नस खींची जाती है, जिससे वह नपुंसक हो जाता है। यह उसकी सांसारिक इच्छाओं से मुक्ति का प्रतीक है। इस कठिन संस्कार के बाद, सभी साधु शाही स्नान के लिए पवित्र नदी में डुबकी लगाते हैं। डुबकी के साथ ही साधक नागा साधु के रूप में प्रतिष्ठित हो जाता है।

कुंभ मेलों में नागा साधुओं को स्थान के आधार पर भिन्न नाम दिए जाते हैं:

प्रयाग में इन्हें नागा कहा जाता है।
उज्जैन में ये खूनी नागा कहलाते हैं।
हरिद्वार में इन्हें बर्फानी नागा कहा जाता है।
नासिक में इनका नाम खिचड़िया नागा होता है।

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