कहानी / भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा, मालव के राजा को पहली बार दिए थे दर्शन

By: Pinki Tue, 23 June 2020 09:09:05

कहानी / भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा, मालव के राजा को पहली बार दिए थे दर्शन

सुप्रीम कोर्ट ने कल ऐतिहासिक और धार्मिक पंरपरा की पहचान पुरी की रथयात्रा की मंजूरी दे दी। कोरोना संकट के बीच आज मंगलवार को यह रथयात्रा निकलेगी। 2500 साल से ज्यादा पुराने रथयात्रा के इतिहास में पहली बार ऐसा मौका होगा, जब भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा निकलेगी, लेकिन भक्त घरों में कैद रहेंगे। कोरोना महामारी के चलते पुरी शहर को टोटल लॉकडाउन करके रथयात्रा को मंदिर के 1172 सेवक गुंडिचा मंदिर तक ले जाएंगे। बता दे, सुप्रीम कोर्ट के आदेश के तहत सोमवार रात 9 बजे से ही पुरी में कर्फ्यू लगा दिया गया है, जो बुधवार दोपहर 2 बजे तक जारी रहेगा, इस दौरान किसी को घर से बाहर निकलने की इजाजत नहीं है।

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मंगलवार को रथयात्रा पूरी कर भगवान जगन्नाथ अपने भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा के साथ अपनी मौसी के घर मुख्य मंदिर से ढाई किमी दूर गुंडिचा मंदिर जाएंगे। यहां भगवान 7 दिनों तक आराम करते हैं। इसके बाद वापसी की यात्रा शुरु होती है। कुल नौ दिन का उत्सव पुरी शहर में होता है। मंदिर समिति पहले ही तय कर चुकी थी कि पूरे उत्सव के दौरान आम लोगों को इन दोनों ही मंदिरों से दूर रखा जाएगा। पुरी में लॉकडाउन हटने के बाद भी धारा 144 लागू रहेगी।

ओडिशा में पुरी के अलावा भी कई जगहों पर ऐसी यात्राएं आयोजित की जाती हैं। अहमदाबाद में भी रथयात्रा निकलती है। आज गुजरात के मुख्यमंत्री विजय रूपाणी ने सोने के झाड़ू से झाड़ू लगाकर रथ खींचा। हालांकि रथयात्रा मंदिर परिसर से बाहर नहीं निकलेगी। चंद भक्तों के बीच सुबह 4 बजे मंगला आरती और दर्शन शुरू हुए। भगवान जगन्नाथ को रथ में बिठाकर पूरे दिन भक्त मंदिर परिसर में ही दर्शन कर सकेंगे। सिर्फ 10 लोगों को एक साथ मंदिर परिसर में आने की इजाजत मिलेगी। सोशल डिस्टेंसिंग और थर्मल चेकिंग के बाद भक्तों को मंदिर में आने दिया जाएगा।

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रथयात्रा की कहानी

पुरी में भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा निकालने की परंपरा काफी पुरानी है। इस रथयात्रा से जुड़ी कई किवंदतियां भी प्रचलित हैं। उसी के अनुसार, भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा निकालने की परंपरा राजा इंद्रद्युम ने प्रारंभ की थी। यह कथा संक्षेप में इस प्रकार है-

कलयुग के प्रारंभिक काल में मालव देश पर राजा इंद्रद्युम का शासन था। वह भगवान जगन्नाथ का भक्त था। एक दिन इंद्रद्युम नीलांचल पर्वत पर गया तो उसे वहां देव प्रतिमा के दर्शन नहीं हुए। निराश होकर जब वह वापस आने लगा, तभी आकाशवाणी हुई कि शीघ्र ही भगवान जगन्नाथ मूर्ति के स्वरूप में पुन: धरती पर आएंगे। यह सुनकर वह खुश हुआ। एक बार जब इंद्रद्युम पुरी के समुद्र तट पर टहल रहा था, तभी उसे समुद्र में लकड़ी के दो विशाल टुकड़े तैरते हुए दिखाई दिए। तब उसे आकाशवाणी की याद आई और उसने सोचा कि इसी लकड़ी से वह भगवान की मूर्ति बनवाएगा। तभी भगवान की आज्ञा से देवताओं के शिल्पी विश्वकर्मा वहां बढ़ई के रूप में आए और उन्होंने उन लकड़ियों से भगवान की मूर्ति बनाने के लिए राजा से कहा। राजा ने तुरंत हां कर दी।

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तब बढ़ई रूपी विश्वकर्मा ने यह शर्त रखी कि वह मूर्ति का निर्माण एकांत में करेंगे, यदि कोई वहां आया तो वह काम अधूरा छोड़कर चले जाएंगे। राजा ने शर्त मान ली। तब विश्वकर्मा ने गुण्डिचा नामक स्थान पर मूर्ति बनाने का काम शुरू किया। एक दिन भूलवश राजा बढ़ई से मिलने पहुंच गए। उन्हें देखकर विश्वकर्मा वहां से अन्तर्धान हो गए और भगवान जगन्नाथ, बलभद्र व सुभद्रा की मूर्तियां अधूरी रह गईं। तभी आकाशवाणी हुई कि भगवान इसी रूप में स्थापित होना चाहते हैं। तब राजा इंद्रद्युम ने विशाल मंदिर बनवा कर तीनों मूर्तियों को वहां स्थापित कर दिया। भगवान जगन्नाथ ने ही राजा इंद्रद्युम को दर्शन देकर कहा कि वे साल में एक बार अपनी जन्मभूमि अवश्य जाएंगे। स्कंदपुराण के उत्कल खंड के अनुसार, इंद्रद्युम ने आषाढ़ शुक्ल द्वितीया को प्रभु को उनकी जन्मभूमि जाने की व्यवस्था की। तभी से यह परंपरा रथयात्रा के रूप में चली आ रही है।

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