हिंदी सिनेमा की नायिका और समाज की नारी
By: Priyanka Maheshwari Fri, 05 May 2017 2:27:45
भारतीय सिनेमा के 100 साल का पूरा परिद्रश्य हमारे सामने है। यहाँ बहुत कुछ घटित हुआ है व हो रहा है। यह कहना अतिश्योक्तिपूर्ण नहीं है कि सिनेमा के सिनेमाई रंगो से अछूता समाज का कोई अंग रहा है। चाहे समाज के मानवीय मूल्य हो , सामाजिक -सांस्कृतिक , आर्थिक परिवेश अथवा समाज की नारी।
भारतीय सिनेमा की पहली फिल्म 'राजा हरिश्चंद्र ' [1913 , दादा साहब फाल्के निर्देशित ] नायिका विहिन फिल्म रही है , जिसमें नायिका का किरदार पुरुष पात्र द्वारा किया गया था। इसके बाद से निरंतर समय के प्रवाह नायिका द्वारा अभिनीत फिल्में बनायी जाती रही है। ऑस्कर के लिए नामित पहली फिल्म ' मदर इंडिया ' रही है। जो 'औरत ' का रीमेक है। जिसमें एक कृषक महिला के संघर्ष का चित्रण है। जो निर्देशक कल्पित कम तथा परिस्तिथि उत्पन्न अधिक प्रतीत होता है। नायिका का यह रूप आज भी ग्रामीण परिवेश में सहज देखा जा सकता है।
फिल्मों में नायिका के रूप कहानी , समाज के प्रभाव , निर्देशक के विचारो के आधार पर परिवर्तित होते रहे है। जैसे शोमैन राजकपूर की 'राम तेरी गंगा मैली ' की मंदाकिनी , सत्यम शिवम सुंदरम की नायिका , 'दामिनी ' फिल्म की नायिका किसी न किसी रूप से शारीरिक , मानसिक , सामाजिक प्रताड़ना की शिकार रही है। जिसने यह सब सहते हुए भी अपनी 'गंगा ' जैसी पवित्रता को सिद्ध करने का प्रयास किआ है। यह समाज में कुछ दशक पूर्व का परिद्रश्य था। जिसमें समाज की नारी के शोषण व विवशता की अधिकता थी।
परिस्थितयों व समयानुसार समाज की नारी व सिनेमा की नायिका दोनों में
बदलाव होते रहे है। यह कहना कठिन है कि किसके कारण कौन परिवर्तित हो रहा
है। इतना आवश्यक है कि आधुनिक सिनेमा की नारी को पुरानी नायिका के समान ,
अबला , कमजोर , समाज में दुत्कारी हुई , उपेक्षित , शोषित , दया की पात्र ,
एक याचक , आदर्शो की प्रतिमूर्ति , भोग की वास्तु के रूप प्रदर्शित न कर
'गुलाबी गैंग , मर्दानी , मैरी कॉम के ' रूप में एक आधुनिक पूर्णतः सशक्त ,
द्रढ -निश्चियी , आत्मविश्वासी , समस्याओं का डटकर सामना करने वाली
नायिका के रूप में प्रदर्शित किया जा रहा है। यह नारी पात्र किसी अन्य लोक
के न होकर हमारे अपने समाज से लिए जा रहे है। साथ ही यह कहना अनुचित न
होगा कि 'गंगा ' से मेरीकॉम तक की संघर्षयात्रा के मध्य में नायिका रेखा के
माध्यम से सही समय आने पर फूलो के अंगारा बनने [फूल कभी जब बन जाए अंगारा ]
व लज्जा की वैदेही [माधुरी दीक्षित ] के माध्यम से समाज की क्रूरता व
स्वार्थपरता की एक परतो का उद्घाटन किया गया है।
अतः
निष्कर्षतः कहा सकता है कि यह कहना सर्वथा उचित ही होगा कि सिनेमा और समाज
की नारी में अधिकांशतः समानता परिलक्षित होती है। तथा यह समानता
उत्तरोत्तर वृद्धि की ओर उन्मुख है जिसमेसकारात्मक प्रभाव होने के साथ ही
नकारात्मक प्रभाव को भी नकारा नहीं जा सकता है।