
सरिस्का टाइगर रिजर्व से जुड़े क्रिटिकल टाइगर हैबिटेट (CTH) के नए ड्राफ्ट को सुप्रीम कोर्ट ने सख्ती से खारिज कर दिया है। कोर्ट ने स्पष्ट कहा कि वह इस ड्राफ्ट को मंजूरी नहीं देगा और अब केंद्र सरकार को 13 अगस्त तक नियमों के उल्लंघन पर जवाब देना होगा।
सर्वोच्च न्यायालय की ग्रीन बेंच के समक्ष पेश हुए मामले में कोर्ट ने तीखी टिप्पणी करते हुए सरकार की नियत और प्रक्रिया दोनों पर सवाल उठाए। अब सरकार की ओर से एडिशनल सॉलिसिटर जनरल (ASG) ऐश्वर्या भाटी को कोर्ट में स्पष्ट करना होगा कि ड्राफ्ट तैयार करते समय नियमों और पूर्व के कोर्ट निर्देशों की अनदेखी क्यों की गई।
मामले में क्या है कोर्ट की आपत्ति?
कोर्ट ने ड्राफ्ट में उन क्षेत्रों को बाहर किए जाने पर नाराजगी जताई जिन्हें पहले सीटीएच का हिस्सा माना गया था। एडवोकेट पारुल शुक्ला के अनुसार, कोर्ट ने इन क्षेत्रों की तस्वीरें देखकर साफ तौर पर संकेत दिया कि यह माइनिंग क्षेत्र हैं। ऐसे में यह स्पष्ट हो गया कि सीटीएच से इन क्षेत्रों को हटाकर खनन गतिविधियों के लिए रास्ता बनाया गया।
कोर्ट ने टिप्पणी में कहा कि यदि मंशा साफ होती, तो विवाद के बाद ड्राफ्ट को दोबारा समीक्षा में लिया जाता। लेकिन ऐसा करने के बजाय जिम्मेदार अधिकारी इस भरोसे में थे कि कोर्ट इसे बिना सवाल के मंजूरी दे देगा। कोर्ट ने इस आत्मविश्वास को अनुचित ठहराते हुए स्पष्ट किया कि CTH जैसा संवेदनशील पर्यावरणीय विषय ऐसे गैर-जवाबदेह रवैये का शिकार नहीं हो सकता।
कांग्रेस नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री जितेंद्र सिंह ने कोर्ट के रुख को “ऐतिहासिक” करार देते हुए कहा कि इससे पूरी सरकार की मंशा बेनकाब हो गई है। उन्होंने कहा कि भाजपा सरकार के संरक्षण में सरिस्का में खनन माफिया काम कर रहा है और सुप्रीम कोर्ट ने उनके गठजोड़ का पर्दाफाश कर दिया है।
आगे क्या होगा?
13 अगस्त को सुप्रीम कोर्ट की ग्रीन बेंच में इस मसले पर दोबारा सुनवाई होगी। तब तक ASG को कोर्ट में यह स्पष्टीकरण देना होगा कि सरकार ने CTH ड्राफ्ट बनाते समय पर्यावरणीय मानकों और न्यायालय के पूर्व आदेशों की अनदेखी क्यों की।
इसके बाद ही कोर्ट नए सीटीएच ड्राफ्ट को लेकर अंतिम आदेश जारी करेगा। पर्यावरणविदों की निगाहें इस सुनवाई पर टिकी हैं क्योंकि यह सिर्फ सरिस्का ही नहीं, बल्कि देश के अन्य टाइगर रिज़र्व्स के संरक्षण के लिए भी नजीर बन सकती है।
सरिस्का सीटीएच ड्राफ्ट को लेकर कोर्ट की सख्ती इस बात का संकेत है कि पर्यावरणीय मसलों में न्यायपालिका अब किसी प्रकार की ढील को बर्दाश्त करने के मूड में नहीं है। यह मामला साबित करता है कि पर्यावरण संरक्षण की लड़ाई अब सिर्फ कागजों पर नहीं, कोर्ट के कठघरे में भी लड़ी जा रही है।














