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आस्था या अंधविश्वास: चिता की राख में ‘94’ अंक लिखने का रहस्य

काशी के मणिकर्णिका घाट में दाह संस्कार के बाद चिता की राख में ‘94’ अंक लिखने की रहस्यमयी परंपरा के पीछे की आस्था और धार्मिक विश्वासों के बारे में जानें। यह प्रथा मृतक के नियंत्रित कर्मों के मोक्ष और आध्यात्मिक यात्रा का प्रतीक मानी जाती है।

Posts by : Kratika Maheshwari | Updated on: Sat, 22 Nov 2025 2:11:25

आस्था या अंधविश्वास: चिता की राख में ‘94’ अंक लिखने का रहस्य

काशी, जिसे भगवान शिव की नगरी और मोक्षदायिनी भूमि कहा जाता है, अपने धार्मिक और पौराणिक महत्व के लिए प्रसिद्ध है। यहां का मणिकर्णिका घाट सदियों से जीवन और मृत्यु के संगम का प्रतीक रहा है। घाट पर निरंतर जलती अग्नि और दाह संस्कार की परंपरा ने इसे खास बना दिया है। इसी घाट से जुड़ी एक रहस्यमयी प्रथा इन दिनों सोशल मीडिया पर चर्चा का विषय बनी हुई है—चिता की राख में ‘94’ अंक लिखना।

मणिकर्णिका घाट और ‘94’ अंक की परंपरा

मणिकर्णिका घाट को मृत्यु के मोक्ष द्वार के रूप में देखा जाता है। कहा जाता है कि जब किसी मृतक का दाह संस्कार संपन्न हो जाता है और चिता ठंडी हो जाती है, तो मुखाग्नि देने वाला व्यक्ति या श्मशान कर्मी किसी लकड़ी, छड़ी या ऊंगली की मदद से राख पर 94 अंक लिखता है। इसके बाद राख को गंगा में विसर्जित किया जाता है।

यह परंपरा स्थानीय लोगों के लिए सामान्य है, लेकिन बाहर से आने वाले श्रद्धालु और पर्यटक इसे रहस्य और आस्था का प्रतीक मानते हैं। यह अंक केवल एक प्रतीक नहीं, बल्कि मृतक के जीवन और कर्मों से जुड़ी आध्यात्मिक मान्यता का प्रतिनिधित्व करता है।

‘94’ अंक का अर्थ

स्थानीय मान्यताओं के अनुसार, मनुष्य के कुल 100 कर्म होते हैं। इनमें से 94 कर्म वह स्वयं नियंत्रित कर सकता है—अपने विचार, इच्छा और क्रियाओं के माध्यम से। बाकी 6 कर्म जैसे जन्म-मृत्यु, यश-अयश, लाभ-हानि आदि ईश्वर या नियति के अधीन माने जाते हैं।

चिता की राख में ‘94’ अंक लिखने का अर्थ है कि मृतक के नियंत्रित 94 कर्म अग्नि में भस्म हो गए और वह सांसारिक बंधनों से मुक्त हो गया। शेष 6 कर्म ईश्वर के हाथ में छोड़ दिए जाते हैं। यह परंपरा मृतक की आत्मा को मोक्ष की ओर ले जाने का प्रतीकात्मक संकेत मानी जाती है।

शास्त्रीय प्रमाण और स्थानीय मान्यता


हालांकि हिंदू शास्त्रों और ग्रंथों में सीधे तौर पर चिता की राख में 94 अंक लिखने का कोई उल्लेख नहीं मिलता। यह प्रथा मुख्यतः स्थानीय लोगों और विद्वानों द्वारा कर्म, मोक्ष और पुनर्जन्म के सिद्धांतों के आधार पर अपनाई जाती है। इसे सीधे शास्त्रीय प्रमाण नहीं कहा जा सकता, लेकिन यह काशी की धार्मिक संस्कृति और श्रद्धालु मान्यताओं का महत्वपूर्ण हिस्सा बन गई है।

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