'पद्मावती' के बहाने फिर बही असहिष्णुता की बयार

पिछले एक माह से हिन्दुस्तान के हर अखबार, टीवी चैनल, गाँव की चौपाल और शहरों में स्थित चाय की थडिय़ों पर एक ही चर्चा-ए-आम हैं कि क्या निर्माता निर्देशक संजय लीला भंसाली की ऐतिहासिक फिल्म 'पद्मावती' प्रदर्शित होगी या फिर यह 'किस्सा कुर्सी का' की तरह डिब्बाबंद हो जाएगी। राजस्थान से शुरू हुआ पद्मावती का विरोध धीरे-धीरे पूरे हिन्दुस्तान में फैला और अब यह राजनीतिक मोर्चे पर सतरंगी इन्द्रधनुष की तरह चमक रहा है।

पद्मावती को लेकर भारतीय जनता पाटी के बड़े-बड़े नेता अपना बयान दे रहे हैं। इनमें वे नेता भी शामिल हैं जिन्हें अपने शहर का इतिहास मालूम नहीं लेकिन वे पद्मावती के खिलाफ बोल रहे हैं। हाल ही में भाजपा के एक नेता सूरजपाल सिंह अम्मू ने यहाँ तक कह डाला कि, पद्मावती की भूमिका निभाने वाली अभिनेत्री दीपिका पादुकोण की नाक काटने लाने वाले को 5 करोड और सिर काटकर लाने वाले को 10 करोड रुपये दिए जाएंगे।

केन्द्र की सत्तारूढ़ भाजपा के शासन में होते हुए हिन्दू नेताओं द्वारा दिए जा रहे इस तरह के सार्वजनिक बयानों ने बॉलीवुड में एक बार फिर असहिष्णुता की बयार बहा दी है। कुछ वर्ष पूर्व अभिनेता आमिर खान ने कहा था कि उन्हें अफसोस है कि वे भारतीय है। उनके इस कथन को मीडिया ने तोड़मरोड़ कर जनता के सामने पेश किया। सरकार ने आमिर के बयान को गंभीरता से लिया और उन्हें पधारो म्हारे देश और स्वच्छता अभियान की ब्रांड एम्बेसडरिंग से हटा दिया गया। लेकिन अब बॉलीवुड के अन्य कई सितारों ने कहा है कि उन्हें भारतीय होने पर गर्व है लेकिन भारत में रहना मुश्किल सा लग रहा है।

'पद्मावती' का विरोध पद्मावती को लेकर नहीं बल्कि अलाउद्दीन खिलजी को लेकर हो रहा है। विरोधियों का कहना है कि निर्देशक ने अलाउद्दीन खिलजी और पद्मावती के मध्य रोमांटिक दृश्यों का मंचन किया है। वहीं इतिहासकारों का कहना है कि संजय लीला भंसाली ने इस फिल्म को बनाने में दो गलतियाँ की हैं। पहली यह फिल्म इतिहास पढक़र नहीं बनाई गई है। उनकी फिल्म मलिक मोहम्मद जायसी के ग्रंथ पद्मावत पर आधारित है, जो पूरी तरह काल्पनिक है। दूसरी गलती यह है कि फिल्म के सेंसर बोर्ड से पास होने से पहले की इसका ट्रेलर लांच कर दिया गया और फिल्म राजपूत रिप्रेंटेटेवि कमेटी को नहीं दिखायी गई। अगर फिल्म में विवाद का मुद्दा बनी ड्रीम सीक्वेंस नहीं है तो भंसाली को फिल्म राजपूत रिप्रेंटेटेवि कमेटी को दिखाने में क्या आपत्ति है। इसके अतिरिक्त कुछ गलत नहीं है तो फिल्म का इंश्योरेंस क्यों करवाया है। माना जाता है कि राव रावल राजा रतनसिंह ने केवल एक वर्ष राज किया था। अलाउद्दीन ने किले को घेर लिया, जब उसे लगा कि ऐसे बात नहीं बनेगी तो उसने रतनसिंह को समझौते के लिए बुलाया। इतिहास में इस बात का कहीं जिक्र नहीं है कि अलाउद्दीन ने पद्मावती के लिए किले को घेरा था।

पद्मावती के विरोध में उतरे राजपूतों का भी विरोध होना शुरू हो गया है। कुछ इतिहासकारों का कहना है कि साहित्य में रतनसिंह और पद्मावती की कहानी है। भंसाली ने इतिहास से कोई छेड़छाड़ नहीं की होगी। विरोधी पहले फिल्म देखें। अगर लगता है कि पद्मावती की गरिमा को नुकसान हो रहा है, तो फिर आलोचना या आंदोलन करें।

कहने वाले कह रहे हैं कि बिना फिल्म को देखे आन्दोलन करना राजनीति लग रही है। 16वीं शताब्दी में जायसी के ग्रंथ 'पद्मावत' के बाद अलग-अलग भाषाओं में पद्मावती की कथाएँ लिखी गई हैं। राजस्थानी, बंगाली, अवधी, डिंगल भाषाओं में अलग-अलग कथाकारों ने लिखा। भारत के बाहर बर्मा में भी पद्मबति नाम से पद्मावती की कहानी लिखी गई। संजय लीला भंसाली की कहानी भी ऐसी ही एक कथा है। कथाकार को कलात्मक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मिलनी चाहिए। पुराने जमाने में कई भारतीय कथाकारों को पद्मावती की कथा को अपने ढंग से लिखने की स्वतंत्रता मिली, फिर आज क्योंकर कथाकार, फिल्मकार उस कलात्मक स्वतंत्रता के लिए मोहताज हैं।

प्राप्त समाचारों के अनुसार भाजपा ने अपने नेता के बयान के खिलाफ सख्त रवैया अख्तियार कर लिया है। उनके खिलाफ एफआईआर दर्ज हो गई है। लेकिन क्या इससे एक फिल्मकार, एक अभिनेत्री के साथ पूरे फिल्म उद्योग को जो ठेस पहुंची है, उसकी भरपाई हो पाएगी। केन्द्र सरकार को 'पद्मावती' को लेकर कोई ठोस निर्णय लेना चाहिए वरना ऐसा न हो कि भारत के महान फिल्मकार एक-एक करके भारत को छोडऩा शुरू कर दें। कुछ वर्षों पूर्व तक बॉलीवुड माफिया से डरा, सहमा रहता था। उसके डर से कुछ निर्माता निर्देशक भारत को छोडक़र विदेशों में जा बसे। (जैसे निर्माता निर्देशक राजीव रॉय त्रिदेव, गुप्त, विश्वात्मा)। अब नेता और संगठन अपनी राजनीतिक रोटियों को सेंकने के लिए फिल्मों और कलाकारों का विरोध करने लगे हैं। परिस्थितियाँ वहीं हैं, सिर्फ चेहरा बदला है। सरकार को कुछ सोचना चाहिए।