ऐसे ही आसानी से नहीं मिला था 'रविवार का साप्ताहिक अवकाश', हुआ था बहुत बड़ा जन आंदोलन

पूरे सप्ताह काम करने के बाद सभी को छुट्टी वाले दिन रविवार का इंतजार रहता हैं जब सुकून और आराम मिल सकें। लेकिन क्या आप जानते हैं कि रविवार का साप्ताहिक अवकाश इतनी आसानी से नहीं मिला हैं जबकि इसके लिए बहुत बड़ा जन आन्दोलन हुआ था। पहले के समय में साप्ताहिक अवकाश की कोई व्यवस्था नहीं थी और अब कई जगह पर तो रविवार के साथ शनिवार का भी अवकाश मिलता हैं। इसके पीछे की वजह बने थे नारायण मेघाजी लोखंडे। ब्रिटिश शासनकाल में लोगों को बहुत परेशान किया जाता था। उस समय किसी भी मजदूर को कोई छुट्टी नहीं मिलती थी और सप्ताह के सातों दिन सबको काम करना पड़ता था।

उस समय नारायण मेघाजी लोखंडे श्रमिकों के नेता थे। श्रमिकों की हालत को देखते हुए उन्होंने ब्रिटिश सरकार को इस बारे में सूचित किया। इसके साथ ही हफ्ते में एक दिन छुट्टी देने की बात कही, लेकिन ब्रिटिश सरकार ने उनके इस निवेदन को सिरे से खारिज कर दिया था।

लोखंडे जी को यह बात बिल्कुल पसंद नहीं आई। उन्होंने सभी श्रमिकों को अपने साथ लिया और इसका जमकर विरोध किया और सरकार की इस सख्ती के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद की थी। मजदूरों को उनका हक दिलवाने के लिए काफी कुछ किया। 'बॉम्बे हैंड्स एसोसिएशन' के जरिये लोखंडे जी ने 1881 में पहली बार कारखाने संबंधी अधिनियम में बदलावों की मांग रखी और इसे पूरा करवाने के लिए आंदोलन की शुरुआत हुई।

मजदूरों की मांगों के लिए एक प्रस्ताव तैयार किया गया, जिसमें ये चीजें शामिल थी -

- मजदूरों के लिए रविवार के अवकाश हो।
- भोजन करने के लिए काम के बीच में समय मिले।
- काम के घंटे यानी शिफ्ट का एक समय निश्चित हो।
- काम के समय दुर्घटना की स्थिति में कामगार को वेतन के साथ छुट्टी मिले।
- दुर्घटना में मज़दूर की मौत की स्थिति में उसके आश्रितों को पेंशन मिले।

आंदोलन इतना बड़ा हो गया था कि लोखंडे जी की श्रमिक सभा में बॉम्बे के रेसकोर्स मैदान में देश के करीब 10 हजार मजदूर जुटे और कामबंदी का ऐलान कर दिया। इस आंदोलन से ब्रिटिश सरकार हरकत में आई। 10 जून 1890 को ब्रिटिश सरकार ने आदेश जारी किया कि सप्ताह में एक दिन सबकी छुट्टी होगी। इसके बाद रविवार को छुट्टी करने का फैसला हुआ था। इसके साथ ही हर रोज दोपहर के वक्त आधे घंटे का आराम भी दिया गया, जिसे हम आज लंच ब्रेक कहते हैं।