लम्बे समय से चर्चाओं में रही कंगना रनौत अभिनीत और निर्देशित फिल्म इमरजेंसी 17 जनवरी को सिनेमाघरों में पहुँची। भारतीय इतिहास के सबसे विवादित दौर की झलक पेश करने वाली इस फिल्म के बारे में जो कुछ हमने सोच रखा था यह फिल्म उससे कहीं बेहतर है। कंगना ने न सिर्फ कथानक को मजबूत रखा है अपितु उसे अपने निर्देशन में परदे पर बेहतरीन तरीके से उकेरा है। हालांकि फिल्म थोड़ी लंबी है, जिसकी वजह से कुछ जगह यह धीमी महसूस होती है, लेकिन यह खामी इसके प्रभावशाली कंटेंट के आगे छोटी लगती है। असरदार निर्देशन, बेहतरीन सिनेमैटोग्राफी और जबरदस्त बैक ग्राउंड म्यूजिक के चलते फिल्म अपना असर कम नहीं होने देती है।
कंगना रनौत की फिल्म 'इमरजेंसी' भारतीय राजनीति के उस काले अध्याय को पर्दे पर लेकर आती है, जिसने 1975 से 1977 के बीच भारतीय लोकतंत्र की जड़ों को हिला दिया। यह फिल्म तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के सख्त शासन और तानाशाही फैसलों पर केंद्रित है। कहानी का फोकस 21 महीने तक चले आपातकाल पर है, जिसमें नागरिक स्वतंत्रताएं खत्म कर दी गई थीं।
फिल्म में बांग्लादेश स्वतंत्रता युद्ध, ऑपरेशन ब्लू स्टार, खालिस्तानी आंदोलन और इंदिरा गांधी की हत्या जैसी ऐतिहासिक घटनाओं का जिक्र किया गया है। लेकिन इन घटनाओं के बीच कहानी इमरजेंसी के दौर के राजनीतिक और भावनात्मक पहलुओं पर ज्यादा जोर देती है।
असरदार निर्देशन, बेहतरीन सिनेमैटोग्राफीकंगना रनौत ने फिल्म का निर्देशन स्वयं ने ही किया है। उन्होंने ऐतिहासिक घटनाओं और मानवीय पहलुओं के बीच बेहतरीन तालमेल रखा है। पूरी फिल्म में 70 के दशक की झलक नजर आती है। कंगना ने कहानी को निष्पक्ष रहते हुए भारतीय राजनीति के जटिल पहलुओं को सामने रखा है। कंगना के निर्देशन के अलावा फिल्म की सिनेमेटोग्राफी भी कमाल की है। जो उस दौर को जीवंत करने में पूरी तरह सफल रही है। इसमें बेहतरीन सिनेमेटोग्राफी और ऐतिहासिक घटनाओं की सटीक प्रस्तुति देखने को मिलेगी।
प्रभावशाली अभिनयइंदिरा गांधी के रूप में कंगना रनौत ने कमाल का काम किया है। उनका लुक, हावभाव प्रभावशाली रहे हैं, लेकिन उनकी संवाद अदायगी कुछ कमजोर रही है। कुछ संवादों में जहाँ उनकी आवाज में जोश और गरमाहट नजर आनी चाहिए थी, वह नहीं है। संजय गांधी के किरदार में विषाक नायर उनके व्यक्तित्व को प्रभावशाली तरीके से परदे पर उतारा है। जयप्रकाश नारायण के संघर्षशील व्यक्तित्व को अनुपम खेर ने बड़े प्रभावशाली ढंग से पेश किया है। सतीश कौशिक ने जगजीवन राम के किरदार में अपनी छाप छोड़ी है। यह उनकी मृत्यु के बाद प्रदर्शित होने वाली दूसरी फिल्म है। इससे पहले उनके निर्देशन व अभिनय से सजी फिल्म कागज-2 का प्रदर्शन हुआ था।
महिमा चौधरी ने इस फिल्म में इंदिरा गांधी की करीबी मित्र पूपुल जयकर की भूमिका निभाई है। उन्होंने अपने अभिनय से भावनात्मक गहराई जोड़ी है। मिलिंद सोमन ने फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ का किरदार बखूबी निभाया है।
इन सहायक कलाकारों में सबसे प्रभावशाली अभिनय श्रेयस तलपड़े का रहा है, जिन्होंने अटल बिहारी वाजपेयी की भूमिका निभाई है। एक नेता, कवि के रूप में उनके चेहरे के भाव गजब के हैं। वैसे भी श्रेयस तलपड़े इन दिनों पुष्पा 2: द रूल में अल्लू अर्जुन को दी अपनी आवाज के चलते खासी चर्चाओं में हैं। यहाँ दर्शक उनके अभिनय को देखकर थोड़ा चकित होता है और सोचता है कि इस अदाकार को अभी कोई दमदार भूमिका क्यों नहीं मिली।
अपनी उपस्थिति दर्ज करवाता है संगीतफिल्म का म्यूजिक बेहद ही प्रभावशाली है। खास करके ‘सिंहासन खाली करो’ और ‘सरकार को सलाम है’ जैसे गाने फिल्म के संदेश को असरदार तरीके से दर्शकों तक पहुंचाते हैं। बैकग्राउंड स्कोर कहानी में गहराई जोड़ता है।
कुल मिलाकर यह फिल्म राजनीति में रुचि रखने वालों के साथ-साथ उन दर्शकों को खास पसन्द आएगी जो कंगना रंनौत के हार्ड कोर प्रशंसक हैं।