अनुपम खेर : 35 साल, 512 फिल्में, जेहन में सिर्फ याद आती है सारांश, कर्मा

एक दौर था जब बॉलीवुड मेंं अभिनेता गिनती पर नहीं अपितु गुणवत्ता पर ध्यान देते थे। वे कम फिल्में, अच्छा अभिनय में विश्वास करते थे। एक आज का दौर है जब सितारे सिर्फ गिनती पर ध्यान देते हैं, गुणवत्ता पर नहीं। ऐसे ही एक अदाकार हैं अनुपम खेर, जो पिछले 35 वर्षों से फिल्म उद्योग में काम कर रहे हैं। एक वक्त निर्माता निर्देशकों के घर और ऑफिस के चक्कर लगा रोटी की जुगाड़ में बैठे इस अभिनेता ने कभी सोचा नहीं होगा कि वो इतनी सारी फिल्मों में अपना चेहरा दिखाएंगे। 35 साल, 512 फिल्में अर्थात् हर वर्ष 14.6 फिल्मों को वो पूरा करते हैं।

हाल ही में अनुपम खेर ने अपने एक ताजा साक्षात्कार में कहा कि उनका मुकाबला अपने समकक्ष अभिनेताओं से नहीं बल्कि आज के युवा सितारों से है। यह बात उन्होंने अपने करियर की 512वीं फिल्म की शूटिंग करते हुए कही है। अनुपम खेर इन दिनों मनीष पॉल और मीका सिंह के साथ फिल्म ‘बा बा ब्लैक शीप’ के गाने की शूटिंग कर रहे हैं। उन्होंने इस दौरान अपने अभिनय के सफर के बारे में कहा—फिल्म उद्योग में मुझे 35वाँ साल है और यह मेरी 512वीं फिल्म है। मेरा मुकाबला अपने हमउम्र कलाकारों के साथ नहीं, बल्कि आज की युवा वरुण धवन और मनीष पॉल से है।

वर्ष 1984 में राजश्री प्रोडक्शन की फिल्म ‘सारांश’ से अपना अभिनय सफर शुरू करने वाले अनुपम खेर इन दिनों 512वीं फिल्म मेंं तो काम कर रहे हैं, शायद ही कोई ऐसा दर्शक होगा जिसके जेहन में उनकी 511 फिल्मों का ध्यान हो। अपनी युवावस्था (30 वर्ष) में 60 वर्षीय बुर्जुग की भूमिका को जिस अंदाज में अनुपम खेर ने परदे पर उतारा था, उसे देखने के बाद महसूस हुआ था कि यह सितारा आगे जाकर कई और फिल्मों में अपनी अभिनय क्षमता को साबित करेगा लेकिन अफसोस इस 512 फिल्मों के सितारे ने स्वयं को जाया ही किया है।

दर्शकों के जेहन में अनुपम खेर की कुछेक ही ऐसी फिल्में हैं जो याद आती हैं। इनमें भी विशेष रूप से उनकी फिल्म ‘कर्मा’ ऐसी है जो गजेहन में घूमती है। हालांकि सुभाष घई की यह फिल्म सीन-दर-सीन हिन्दी सिनेमा की कालजयी फिल्म ‘शोले’ की रीमेक थी। सुभाष घई ने उस वक्त ‘शोले’ का नया संस्करण दर्शकों के सामने नए अंदाज में पेश किया था।

‘शोले’ में जहाँ गब्बर सिंह (अमजद खान) था, वहीं यहाँ डॉ. डेंग (अनुपम खेर) था। फर्क वो पुराने दौर का डाकू था, और यह आधुनिक दौर का आतंकवादी। शेष पात्र दिलीप कुमार, जैकी श्रॉफ, नसीरउद्दीन, अनिल कपूर ने संजीव कुमार, अमिताभ बच्चन और धर्मेन्द्र की भूमिकाओं को ही परदे पर पुन: उतारा था। ‘कर्मा’ में किया गया अनुपम खेर का अभिनय बेमिसाल था। उन्होंने एक आतंकवादी की भूमिका को ओवर एक्टिंग से बचाते हुए बड़ी नरमी व साफगोई से पेश किया था। दिलीप कुमार के सामने बोला गया उनका संवाद ‘इस थप्पड़ की गूंज तुम्हें बहुत दूर तक सुनाई देगी’ आज भी कानों में गूंजता है। ‘सारांश’ के बाद यह उनकी एक मात्र ऐसी फिल्म रही है, जिसे आज भी दर्शक याद करते हैं।

ऐसा नहीं है कि उन्होंने अपने करियर में और बेहतरीन भूमिकाएँ नहीं की हैं। चरित्र उन्होंने कई निभाए हैं लेकिन छाप छोडऩे वाले नहीं। ऐसे तो उन्होंने यश चोपड़ा निर्मित और निर्देशित तीन और ऐसी फिल्मों में काम किया है जिनकी भूमिका कहने को छोटी थी लेकिन थी मजबूत। यह फिल्में थी—विजय, चांदनी और लम्हे। इन तीनों फिल्मों में वे जब-जब परदे पर आए अपनी छाप छोडऩे में कामयाब रहे।

इन 35 सालों में अनुपम खेर ने फिल्म उद्योग से वो सब पाया जिसकी उम्मीद लेकर वे यहाँ आए थे। अभिनय के साथ-साथ अनुपम खेर एक एक्टिंग स्कूल भी चलाते हैं, जिसके जरिए वे नई प्रतिभाओं को तराशने का काम करते हैं।

वक्त के साथ-साथ न सिर्फ समाज बदला है अपितु फिल्में भी बदली हैं। यह वह दौर है जहाँ विषय आधारित फिल्में सफल हो रही हैं। ऐसे में अनुपम खेर को अपनी अभिनय क्षमता का पूरा लाभ उठाना चाहिए उन्हें उन फिल्मों को चुनने का प्रयास करना चाहिए जहाँ वे अभिनय कर सके एक्टिंग नहीं। उम्मीद करते हैं संन्यास लेने से पहले यह अभिनेता ऐसी कुछ फिल्में जरूर करेगा जो दर्शकों के जेहन में ‘सारांश’ और ‘कर्मा’ की तरह अमिट छाप छोड़ सकें।