कालाष्‍टमी पर ही हुआ था शिवजी के क्रोध से भैरव का जन्म, जानें इस व्रत का महत्व और पौराणिक कथा

आज 3 मई 2021 सोमवार को दोपहर 01 बजकर 39 मिनट से वैशाख मास कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि प्रारंभ हो रही हैं जिसका समापन 04 मई 2021 मंगलवार को दोपहर 01 बजकर 10 मिनट पर होगा। यह तिथि शिवजी के क्रोध से जन्मे भैरव के जन्म के तौर पर कालाष्‍टमी के रूप में पूजी जाती हैं। आज के दिन किया गया व्रत और पूजन भैरव बाबा की कृपा दिलाता हैं और पापी ग्रह राहु-केतु से म‍िलने वाले दोषों को दूर करने का काम करता हैं। आज इस कड़ी में हम आपको कालाष्‍टमी व्रत के महत्व और पौराणिक कथा से जुड़ी जानकारी देने जा रहे हैं। तो आइये जानते हैं इसके बारे में।

कालाष्‍टमी व्रत का महत्व

मान्यताओं के अनुसार कालाष्‍टमी के द‍िन ही भोलेनाथजी भैरव के रूप में प्रकट हुए थे। इस दिन को कालभैरव जन्मोत्सव के रूप में भी मनाते हैं। मान्‍यता है क‍ि यद‍ि सच्चे मन से भैरव बाबा की पूजा की जाए तो ब‍िगड़ते कार्य बन जाते हैं। यही नहीं भैरव बाबा की कृपा से उनकी पूजा करने वाले जातकों को क‍िसी भी तरह के भूत-प‍िशाच और ग्रह दोष नहीं सताते हैं। लेक‍िन ध्‍यान रखें क‍ि भैरव बाबा की पूजा करते समय मन में क‍िसी भी तरह की छल-कपट नहीं होना चाह‍िए।

कालाष्‍टमी की पौराण‍िक कथा

कालाष्टमी की एक पौराणिक कथा के अनुसार एक बार की बात है कि ब्रह्मा, विष्णु और महेश इन तीनों में श्रेष्ठता की लड़ाई चली। इस बात पर बहस बढ़ गई, तो सभी देवताओं को बुलाकर बैठक की गई। सबसे यही पूछा गया कि श्रेष्ठ कौन है? सभी ने अपने-अपने विचार व्यक्त किए और उत्तर खोजा लेकिन उस बात का समर्थन शिवजी और विष्णु ने तो किया, परंतु ब्रह्माजी ने शिवजी को अपशब्द कह दिए। इस बात पर शिवजी को क्रोध आ गया और शिवजी ने अपना अपमान समझा।

ऐसे हुआ भैरव बाबा का जन्‍म

शिवजी ने उस क्रोध में अपने रूप से भैरव को जन्म दिया। इस भैरव अवतार का वाहन काला कुत्ता है। इनके एक हाथ में छड़ी है। इस अवतार को ‘महाकालेश्वर’ के नाम से भी जाना जाता है इसलिए ही इन्हें दंडाधिपति कहा गया है। शिवजी के इस रूप को देखकर सभी देवता घबरा गए। भैरव ने क्रोध में ब्रह्माजी के 5 मुखों में से 1 मुख को काट दिया, तब से ब्रह्माजी के पास 4 मुख ही हैं। इस प्रकार ब्रह्माजी के सिर को काटने के कारण भैरवजी पर ब्रह्महत्या का पाप आ गया। ब्रह्माजी ने भैरव बाबा से माफी मांगी तब जाकर शिवजी अपने असली रूप में आए। भैरव बाबा को उनके पापों के कारण दंड मिला इसीलिए भैरव को कई दिनों तक भिखारी की तरह रहना पड़ा। इस प्रकार कई वर्षों बाद वाराणसी में इनका दंड समाप्त होता है। इसका एक नाम ‘दंडपाणी’ पड़ा था।