बैल ने निगला डेढ़ लाख का मंगलसूत्र, 8 दिन तक गोबर में ढूंढता रहा किसान, लेकिन...

पर्व-त्योहार की श्रृंखला में एक महत्वपूर्ण त्योहार है पोला इसे छत्तीसगढी में पोरा भी कहते हैं। भाद्रपद मास की अमावस्या तिथि को मनाया जाने वाला यह पोला त्योहार, खरीफ फसल के द्वितीय चरण का कार्य (निंदाई गुड़ाई) पूरा हो जाने म नाते हैं। फसलों के बढ़ने की खुशी में किसानों द्वारा बैलों की पूजन कर कृतज्ञता दर्शाने के लिए भी यह पर्व मनाया जाता है। देश के दूसरे राज्यों सहित महाराष्ट्र (Maharashtra) में पोला त्यौहार मनाया जा रहा है। इसी त्यौहार की पूजा में एक अजीबोगरीब वाकया सामने आया जहां एक बैल ने डेढ़ लाख का मंगलसूत्र निगल लिया। 8 दिन बाद मंगलसूत्र को उसके पेट से निकालने के लिए ऑपरेशन तक करना पड़ गया।

दरअसल, महाराष्ट्र के अहमदनगर के एक गांव में एक किसान ने पोला के दिन अपने बैल को पूरे गांव में घुमाया और घर पर उसकी पूजा की। इस समय किसान की पत्नी ने पूजा की थाली में सोने का मंगलसूत्र रख दिया। ठीक उसी समय बिजली गुल हो गई। बिजली गुल होने पर किसान की पत्नी घर के अंदर मोमबत्ती चली गई इतने में बैल ने मिठाई के साथ मंगलसूत्र भी निगल लिया। जब पत्नी ने यह बात किसान को बताई तो किसान ने बैल के मुंह में डालकर मंगलसूत्र निकालने की कोशिश की लेकिन तब तक मंगलसूत्र बैल के पेट तक पहुँच चुका था। इसके बाद किसान ने गांव वालों की सलाह पर बैल के द्वारा गोबर करने का इंतजार करता लेकिन करीब आठ दिन बीत जाने के बाद भी बैल के पेट से मंगलसूत्र नहीं निकला। अंत में किसान बैल को लेकर डॉक्टर के पास गया जहां जांच में पाया गया कि मंगलसूत्र बैल के रेटिकुलम में फंस गया है। इसके बाद डॉक्टर ने बैल का ऑपरेशन किया और मंगलसूत्र निकाला।

क्या है पोला पर्व

बता दें कि पोला के त्यौहार में जिनके घरों में बैल होते हैं, उन्हें सजाकर घुमाया जाता है। बैलों को खाने के लिए कुछ दिया जाता है और उनकी पूजा होती है। कुछ लोग बैलों को मिठाई के साथ-साथ सोना भी चढ़ाते हैं। पोला पर्व की पूर्व रात्रि को गर्भ पूजन किया जाता है। ऐसा माना जाता है कि इसी दिन अन्न माता गर्भ धारण करती है। अर्थात धान के पौधों में दुध भरता है। इसी कारण पोला के दिन किसी को भी खेतों में जाने की अनुमति नहीं होती। रात मे जब गांव के सब लोग सो जाते है तब गांव का पुजारी-बैगा, मुखिया तथा कुछ पुरुष सहयोगियों के साथ अर्धरात्रि को गांव तथा गांव के बाहर सीमा क्षेत्र के कोने कोने मे प्रतिष्ठित सभी देवी देवताओं के पास जा-जाकर विशेष पूजा आराधना करते हैं। यह पूजन प्रक्रिया रात भर चलती है।

इनका प्रसाद उसी स्थल पर ही ग्रहण किया जाता है घर ले जाने की मनाही रहती है। इस पूजन में ऐसा व्यक्ति नहीं जा सकता जिसकी पत्नी गर्भवती हो। इस पूजन में जाने वाला कोई भी व्यक्ति जूते-चप्पल पहन कर नहीं जाता फिर भी उसे कांटे-कंकड़ नहीं चूभते या शारीरिक कष्ट नहीं होता। सूबह होते ही गृहिणी घर में गुडहा चीला, अनरसा, सोहारी, चौसेला, ठेठरी, खूरमी, बरा, मुरकू, भजिया, मूठिया, गुजिया, तसमई आदि छत्तीसगढी पकवान बनाने में लग जाती है। किसान अपने गौमाता व बैलों को नहलाते धोते हैं। उनके सींग व खूर में पेंट या पॉलिश लगाकर कई प्रकार से सजाते हैं। गले में घुंघरू, घंटी या कौड़ी से बने आभूषण पहनाते हैं। तथा पूजा कर आरती उतारते हैं।

अपने बेटों के लिए कुम्हार द्वारा मिट्टी से बनाकर आग में पकाए गए बैल या लकड़ी के बैल के खिलौने बनाए जाते हैं। इन मिट्टी या लकड़ी के बने बैलों से खेलकर बेटे कृषि कार्य तथा बेटियां रसोईघर व गृहस्थी की संस्कृति व परंपरा को समझते हैं। बैल के पैरों में चक्के लगाकर सुसज्जित कर उस के द्वारा खेती के कार्य समझाने का प्रयास किया जाता है।

बेटियों के लिए रसोई घर में उपयोग में आने वाले छोटे-छोटे मिट्टी के पके बर्तन पूजा कर के खेलने के लिए देते हैं। पूजा के बाद भोजन के समय अपने करीबियों को सम्मानपूर्वक आमंत्रित करते हुए एक-दूसरे के घर जाकर भोजन करते हैं। शाम के समय गांव की युवतियां अपनी सहेलियों के साथ गांव के बाहर मैदान या चौराहों पर (जहां नंदी बैल या साहडा देव की प्रतिमा स्थापित रहती है) पोरा पटकने जाते हैं। इस परंपरा मे सभी अपने-अपने घरों से एक-एक मिट्टी के खिलौने को एक निर्धारित स्थान पर पटककर-फोड़ते हैं। जो कि नंदी बैल के प्रति आस्था प्रकट करने की परंपरा है। युवा लोग कबड्डी, खोखो आदि खेलते मनोरंजन करते हैं।

इस पर्व को छत्तीसगढ़ के अलावा महाराष्ट्र, हिमाचलप्रदेश, उत्तराखंड, असम, सिक्किम तथा पड़ोसी देश नेपाल में भी मनाया जाता है। वहां इसे कुशोत्पाटिनी या कुशग्रहणी अमावस्या, अघोरा चतुर्दशी व स्थानीय भाषा मे डगयाली के नाम से मनाया जाता है।