वर्तमान समय में भारत-चीन की सेनाएं जहाँ आमने-सामने हैं उसे लद्दाख की गलवां घाटी के रूप में जाना जाता हैं। करीब 14 हजार फीट की ऊंचाई पर स्थित इस घाटी पर चीन पिछले 60 सालों से नजरें गड़ाए बैठा हैं और 45 साल बाद अभी वहां के हालात बिगड़े हैं। लेकिन क्या आप जानते हैं कि इस गलवां घाटी का नाम एक चरवाहे के नाम पर पड़ा था। आज हम आपको 1962 से लेकर 1975 तक भारत-चीन के बीच हुए युद्ध में केंद्र रही गलवां घाटी के अनोखे इतिहास के बारे में बताने जा रहे हैं। तो आइये जानते हैं इसके बारे में।
गलवां घाटी का नाम लद्दाख के रहने वाले चरवाहे गुलाम रसूल गलवां के नाम पर पड़ा था। सर्वेंट ऑफ साहिब नाम की पुस्तक में गुलाम रसूल ने बीसवीं सदी के ब्रिटिश भारत और चीनी साम्राज्य के बीच सीमा के बारे में बताया है। गुलाम रसूल गलवां का जन्म सन 1878 में हुआ था। गुलाम रसूल को बचपन से ही नई जगहों को खोजने का जुनून था। इसी जुनून की वजह से गुलाम रसूल अंग्रेजों का पसंदीदा गाइड बन गया।
अंग्रेजों को भी लद्दाख का इलाका बहुत पसंद था। ऐसे में गुलाम रसूल ने 1899 में लेह से ट्रैकिंग शुरू की थी और लद्दाख के आसपास कई नए इलाकों तक अपनी पहुंच बनाई। इसी क्रम में गुलाम रसूल गलवां ने अपनी पहुंच गलवां घाटी और गलवां नदी तक बढ़ाई। ऐसे में इस नदी और घाटी का नाम गुलाम रसूल गलवां के नाम पर पड़ा।
गुलाम रसूल गलवां बहुत कम उम्र में ही एडवेंचर ट्रेवलर कहे जाने वाले सर फ्रांसिस यंगहसबैंड की कम्पनी में शामिल हो गया। सर फ्रांसिस ने तिब्बत के पठार, सेंट्रल एशिया के पामेर पर्वत और रेगिस्तान की खोज की थी। अंग्रेजों के साथ रहकर गुलाम रसूल भी अंग्रेजी बोलना, पढ़ना और कुछ हद तक लिखना भी सीख लिया था। 'सर्वेंट ऑफ साहिब्स' नाम की गुलाम रसूल ने ही टूटी-फूटी अंग्रेजी भाषा में लिखी। हालांकि इस किताब का शुरुआती हिस्सा सर फ्रांसिस यंगहसबैंड ने लिखा था।
लेह के चंस्पा योरतुंग सर्कुलर रोड पर गुलाम रसूल के पूर्वजों का घर है। उनके नाम पर यहां गलवां गेस्ट हाउस भी है। यहां आने वालों को गुलाम रसूल के परिजन उनके किस्से सुनाते हैं।