7 जुलाई को मोहर्रम, जयपुर में 200 से अधिक ताजिए निकलेंगे, कारीगरों ने महीनों की मेहनत से दी अंतिम रूपरेखा

जयपुर। मोहर्रम इस्लामी कैलेंडर का पहला महीना होता है और इसी महीने की 10 तारीख को हजरत इमाम हुसैन की शहादत को याद किया जाता है। इस वर्ष मोहर्रम 7 जुलाई को मनाया जाएगा। जयपुर सहित आसपास के इलाकों में इसकी तैयारियां जोरों पर हैं। खासतौर पर ताजियों का निर्माण, सजावट और जुलूस की योजनाएं अंतिम चरण में हैं। ताजिए न केवल इमाम हुसैन की कुर्बानी का प्रतीक होते हैं बल्कि मुस्लिम समुदाय की आस्था और समर्पण का जीवंत उदाहरण भी हैं।

जयपुर में निकलेंगे 200 से ज्यादा ताजिए, कत्ल की रात को होगी पेशकश

जयपुर शहर में इस वर्ष 200 से ज्यादा छोटे-बड़े ताजिए निकाले जाएंगे। 6 जुलाई की रात, जिसे 'कत्ल की रात' कहा जाता है, सभी ताजिए बड़ी चौपड़ लाए जाएंगे। अगले दिन यानी 7 जुलाई को इन्हें मातमी धुनों के बीच रामगढ़ मोड़ स्थित कर्बला मैदान में ले जाकर सुपुर्द-ए-खाक किया जाएगा। हालांकि केवल उन्हीं ताजियों को कर्बला ले जाने की अनुमति है जिन्हें प्रशासन से पूर्व स्वीकृति प्राप्त है। बाकी ताजिए चौपड़ से वापस अपने मोहल्लों की ओर लौट जाएंगे।

बगरू वालों का सबसे ऊंचा ताजिया, साल भर से चल रही थी तैयारी

जयपुर के बगरू मोहल्ले में इस बार का सबसे ऊंचा ताजिया बनकर तैयार हो रहा है, जिसकी ऊंचाई लगभग 21 फीट होगी। इसे बनाने का कार्य एक साल पहले शुरू हुआ था। कारीगर गुड्डू भाई और उनके साथियों ने ताजिए की रचना में बांस की खपच्चियों, सफेद और रंगीन कागजों तथा अभ्रक का इस्तेमाल किया है। अभ्रक की चमक इसकी खूबसूरती बढ़ाती है। कारीगर दिन की बजाय रात में काम करते हैं ताकि शांति और एकाग्रता के साथ ताजिए को सजाया जा सके।

ताजिए निर्माण में नहीं ली जाती मजदूरी, श्रद्धा से करते हैं सेवा

गुड्डू भाई के अनुसार, ताजिए निर्माण में 5 से 6 लाख रुपए तक की लागत आती है, लेकिन इसमें कोई मजदूरी नहीं जोड़ी जाती। यदि कारीगरों की मेहनताना जोड़ी जाए तो यह खर्च 10 लाख रुपए तक पहुंच सकता है। लेकिन यहां के कारीगर यह काम किसी पैसे के लिए नहीं, बल्कि हजरत इमाम हुसैन की याद में सेवा भाव से करते हैं। यही वजह है कि पूरी तैयारी सामूहिक सहयोग से होती है।

सजावट में अभ्रक व कागजों का होता है विशेष उपयोग

कारीगरों के अनुसार, एक ताजिए का ढांचा तैयार करने में लगभग 6 महीने का समय लगता है और उसकी सजावट में भी इतने ही महीने लगते हैं। निर्माण में मुख्य रूप से बांस, सफेद और रंगीन कागज तथा अभ्रक का इस्तेमाल होता है। अभ्रक ताजिए को चमकदार और आकर्षक बनाता है। दिलचस्प बात यह है कि ताजिए को जब सुपुर्द-ए-खाक किया जाता है तो उसका पूरा ढांचा, सजावट और सभी सामग्री सहित दफना दिया जाता है—किसी भी सामग्री को अलग नहीं किया जाता।

मोहर्रम को लेकर पूरे शहर में धार्मिक वातावरण

जयपुर और आसपास के मुस्लिम बहुल इलाकों में इन दिनों धार्मिक भावनाओं का गहरा प्रभाव देखा जा रहा है। ढोल, ताशों और मातमी नारेबाजी के बीच ताजिए मोहल्लों से निकलकर बड़ी चौपड़ तक पहुंचते हैं और वहां से रामगढ़ मोड़ स्थित कर्बला मैदान की ओर रवाना होते हैं। इस दौरान शहर की गलियों में सुरक्षा के व्यापक इंतजाम किए जाते हैं और जुलूस की व्यवस्थाएं संभालने के लिए प्रशासनिक अधिकारी भी सतर्क रहते हैं।

मोहर्रम केवल मातम और श्रद्धांजलि का पर्व नहीं, बल्कि त्याग, आस्था और समाजिक समरसता का प्रतीक है। जयपुर में ताजियों के निर्माण से लेकर उनकी यात्रा तक, हर कदम पर समुदाय की आस्था और एकता की झलक देखने को मिलती है। बगरू मोहल्ले के सबसे ऊंचे ताजिए से लेकर सामान्य मोहल्लों में निकलने वाले ताजियों तक—हर एक का उद्देश्य एक ही होता है: हजरत इमाम हुसैन की शहादत को याद करते हुए इंसानियत और न्याय के लिए खड़े होने का संदेश देना।