बचपन से माँ के साये में रहा हेमांश पहली बार माँ से दूर रह रहा था। कारण उसकी नौकरी दूसरे शहर में लगी थी। अपने सहकर्मियों के साथ ढाबे में रात का खाना खाते हुए वह अपने दोस्तों से कह रहा था, ‘देर रात को खाने पर मेरी राह देखती माँ की सबसे ज्यादा कीमत मुझे अब समझ में आती है। मैंने कभी नहीं सोचा था कि मेरे यह कहने पर कि मैं बाहर से खाकर आया हूं, मेरी माँ को कितनी तकलीफ होती होगी। वो मेरे खाना खाने के बाद ही खाती थी। जिस दिन नहीं खाता था, वो न के बाहर खाकर सो जाती थी। आज नौकरी के चलते पहली बार घर से दूर आया हूं। यहाँ अपना सारा काम खुद कर रहा हूँ। रोज बाहर का कच्चा-पक्का खा रहा हूं, अब जाकर समझ में आ रहा है कि माँ को वो इंतजार और उसके बाद मिलने वाला मेरा जवाब कितना चुभता होगा पर उसने कभी शिकायत नहीं की। इस बार सबसे पहले घर जाकर माँ से अब तक के किए की माफी मांगूंगा।’
ऐसा कहते हुए 24 वर्षीय हेमांश की आँखों से अश्रुधारा बह निकलती है। घर से पढ़ाई या नौकरी के लिए निकले किसी युवक की ये भावनाएँ बिलकुल भी नई नहीं हैं। हमेशा सुरक्षा के दायरे में रहने के आदि हो चुके युवक/युवतियाँ बड़ी आसानी से उनके प्रयासों को नजरअंदाज कर जाते हैं। यह तो उनका कर्तव्य है, यह सोच आपकी नजरों में उनकी अहमियत को खत्म कर देती है।
सिर्फ बच्चों में ही यह देखने को मिलता हो ऐसा नहीं है। पतियों में अक्सर ऐसा ही देखा जाता है। पति को अपनी पत्नी की अहमियत का अहसास ही नहीं होता है। पत्नी जो सालों से उसकी दिनचर्या के हिसाब से उसे भोजन पकाकर देने, ऑफिस के लिए अलमारी से कपड़ों के साथ-साथ मैचिंग रूमाल निकालकर रखने, हर महीने में दी गई धनराशि में घर खर्च चलाने, बच्चों को स्कूल लाने-छोडऩे से लेकर बिजली-पानी का बिल भरने और गाहे-बगाहे अचानक आ टपके उसके दोस्तों की मेहमाननवाजी तक का काम बिना किसी शिकायत के करती है लेकिन पति को पत्नी की अहमियत समझ में नहीं आती है।
‘करेला और नीम चढ़ा’ वाली कहावत तब चरितार्थ होती है जब पति ‘सब्जी में नमक कम है’ या ‘शर्ट की बटन अब तक नहीं टांकी’ जैसे ताने मारकर दफ्तर का गुस्सा या अपनी खीझ उस पर उतारते हैं। किसी पार्टी में पत्नी की साधारण वेशभूषा उसके गुस्से का कारण बन जाती है जबकि पत्नी पति द्वारा दी गई सीमित धनराशि में पूरे घर का खर्च चलाती है और बाकी खर्चों के चलते अपने लिए साडिय़ां लाना टालती जा रही है। यह बात पति या पुत्र या किसी भी एक व्यक्ति की नहीं है। मुख्य मुद्दा है करीबी रिश्ते की अहमियत समझने और उसकी कद्र करने का, जिसकी हम जरूरत नहीं समझते हैं। परिस्थितियाँ कितनी ही विपरीत हों, अपने करीबी की अहमियत और कद्र हमेशा करनी चाहिए। होता इसका उलटा है हम उसके प्रयासों या स्वयं उसको नजरअंदाज करके उसके प्रति नकारात्मक भाव अख्तियार करते हैं।
उपरोक्त बातें सिर्फ पति, पुत्र या पत्नी के रिश्ते में ही लागू नहीं होती हैं अपितु हर उस रिश्ते में लागू होती हैं जो आपके बेहद करीब है। इसमें बुर्जुग माता-पिता भी आ जाते हैं। श्रवण शक्ति कमजोर हो चुकने के बाद बुजुर्ग माँ का जोर से बोलना आपके लिए खीझ का कारण बन सकता है, जवाब में आप माँ को भला-बुरा कह देते हैं, लेकिन आप यह भूल जाते हैं कि यह वही माँ जिसने आपके हर सुख-दुख में साथ दिया है। जिससे रात-रात भर जागकर आपकी बीमारी में आपकी सेवा की है। आप स्वयं उसके लिए कभी दो घंटे रात को नहीं जाग सकते। वो पिता जिसने आपकी हर इच्छा पूरी करने के लिए स्वयं को काम के बोझ तले दबाया होगा, उम्र होने पर यदि वह आपसे कुछ मांग लेता है तो आप झुंझला जाते हैं। माँग पूरी न करने का बहाना ढूंढ़ते हुए कहते हैं कहाँ से लाऊँगा मैं। वक्त कभी रुकता नहीं। उसका क्या मतलब रहे अगर वक्त गुजर जाने के बाद आपको अपनों की कीमत समझ आए। सहेजकर रखिए इन रिश्तों को, यह जिन्दगी भर की अनमोल पूँजी है, जो कभी खत्म नहीं होती। करीबी रिश्ते आपसे सिर्फ प्रेम की आस रखते हैं और कुछ नहीं।