जब थिएटर बना मंदिर, फूल लेकर आते थे दर्शक, सिनेमाघर के बाहर उतारते थे जूते-चप्पल, ‘शोले’ को टक्कर देने वाली वो भक्ति फिल्म!

भारतीय सिनेमा में कई फिल्में आईं और गईं, कुछ याद रहीं और कुछ धुंधली हो गईं। पर ऐसी गिनी-चुनी फिल्में हैं जो सिर्फ एक मनोरंजन का माध्यम नहीं रहीं, बल्कि उन्होंने समाज में एक ऐसी भावनात्मक और आध्यात्मिक क्रांति ला दी जिसे शब्दों में समेट पाना आसान नहीं। वर्ष 1975 में एक ऐसी ही फिल्म रिलीज हुई—‘जय संतोषी मां’, जो एक ओर कम बजट, बिना स्टार पावर और सीमित प्रचार के बावजूद भी रिलीज़ हुई, और दूसरी ओर ‘शोले’ जैसी मल्टीस्टारर ब्लॉकबस्टर फिल्म उसी समय सिनेमाघरों में राज कर रही थी। लेकिन आश्चर्यजनक रूप से, जय संतोषी मां ने न सिर्फ दर्शकों के दिलों में अपनी जगह बनाई, बल्कि सिनेमा हॉल को भक्ति के मंदिर में बदल डाला।

इस फिल्म को देखने वाले नंगे पांव थिएटर में प्रवेश करते थे, हाथों में फूल, नारियल और श्रद्धा लेकर आते थे, मानो किसी देवी के दर्शन करने मंदिर जा रहे हों। यह कोई आम फिल्म नहीं थी, यह एक आस्था की परंपरा थी जो हर शुक्रवार दोहराई जाती थी। सिनेमा के परदे पर देवी का अवतरण था, और दर्शकों के हृदय में उसकी प्रतिष्ठा। जय संतोषी मां ने सिनेमा को उस मुकाम पर पहुंचाया, जहां धर्म, संस्कृति और भावनाओं का संगम हुआ। यह सिर्फ एक फिल्म नहीं थी, यह भारत के धार्मिक और फिल्मी इतिहास का एक अभूतपूर्व अध्याय बन गई।

पहला दिन: मात्र ₹56 की कमाई और सिनेमा जगत में सन्नाटा


‘जय संतोषी मां’ का पहला दिन बेहद निराशाजनक था। सिर्फ ₹56 की कमाई के साथ यह फिल्म मानो बॉक्स ऑफिस पर दम तोड़ने को थी। फिल्म जय संतोषी मां 30 मई, 1975 को रिलीज हुई थी। मुंबई के एक सिनेमाहॉल में पहले शो से फिल्म ने 56 रुपए, दूसरे शो से 64 और तीसरे से 100 रुपए कमाए थे। ट्रेड पंडितों ने इस फिल्म को फ्लॉप घोषित कर दिया था। न कोई प्रचार-प्रसार, न कोई सुपरस्टार चेहरा, और न ही किसी बड़े बैनर का सहारा। फिल्म के निर्माता विजय शर्मा और निर्देशक वी. रमण ने इस फिल्म को पूरी तरह संतोषी माता की भक्ति पर आधारित रखा था। परदे पर भक्ति और आस्था का वो रूप दिखा, जो शायद पहली बार इतने सीधे और भावनात्मक ढंग से दर्शकों के सामने आया।

लेकिन इसके बाद मानो चमत्कार हो गया। सिनेमाघरों में दर्शकों की तादाद बढ़ने लगी। बढ़ते-बढ़ते यह इतनी ज्यादा बढ़ी कि दर्शक जो रात को आखिरी शो 9 बजे देखने आते थे, टिकट न मिलने पर अगले दिन के लिए वहीं सिनेमाघर के बाहर ही रात बिताते थे। यह मंजर बचपन में मैंने स्वयं अपनी आँखों से देखा है। राजस्थान की राजधानी जयपुर में यह फिल्म अपने समय के सुप्रसिद्ध सिंगल स्क्रीन सिनेमाघर मानप्रकाश, जहाँ आज गोलछा ट्रेड सेंटर, बन गया है, में इस फिल्म का प्रदर्शन हुआ था।

50 हफ्ते तक थिएटर में चली फिल्म


विजय शर्मा के डायरेक्शन में बनी फिल्म जय संतोषी मां में अनीता गुहा ने माता संतोषी का रोल निभाया था। एक इंटरव्यू के दौरान एक्ट्रेस ने बताया कि मुंबई के बांद्रा में मायथोलॉजी फिल्मों का मार्केट नहीं था। वहां ऐसी फिल्में नहीं चलती थीं, लेकिन जय संतोषी मां उसी इलाके के सिनेमाघर में 50 हफ्तों तक चली थी। उस जमाने में ये अपने आप में एक बड़ा रिकॉर्ड था।

शोले बनाम जय संतोषी मां: जब धर्म और एक्शन में हुआ बॉक्स ऑफिस मुकाबला

1975 में ही ‘शोले’, जो कि तकनीकी रूप से भारत की अब तक की सबसे बड़ी मल्टीस्टारर एक्शन फिल्म थी, उसी दिन ‘जय संतोषी मां’ भी रिलीज़ हुई। एक ओर जहां शोले बंदूक, बारूद और गब्बर के डर से भरी थी, वहीं ‘जय संतोषी मां’ ने दया, श्रद्धा और सहनशीलता के माध्यम से दिल जीता। IMDB के अनुसार, यह फिल्म उस साल की दूसरी सबसे ज्यादा कमाई करने वाली फिल्म बनी। यानी शोले के ठीक बाद, जो कि अपने आप में एक चौंकाने वाली बात है।

लागत ₹25 लाख, कमाई ₹5 करोड़: भारतीय सिनेमा का सबसे लाभकारी सौदा

‘जय संतोषी मां’ को केवल ₹25 लाख के बजट में बनाया गया था, और इसने लगभग ₹5 करोड़ की कमाई कर ली थी। यानी लगभग 2000% से भी ज्यादा का लाभ, जो आज भी किसी भी प्रोड्यूसर के लिए सपना हो सकता है। इस फिल्म ने साबित कर दिया कि स्टारडम, टेक्नोलॉजी और प्रचार से बड़ी चीज़ है—विषय और भावनात्मक जुड़ाव। देशभर में ‘जय संतोषी मां’ को सुपरहिट कराने में सबसे बड़ा हाथ महिलाओं का माना जाता है। सबसे ज्यादा औरतों में ही इस फिल्म को देखने की जिज्ञासा उठी थी। ये सिलसिला ऐसा चला कि देखते ही देखते फिल्म ब्लॉकस्टर बन गई।

हालांकि, मेकर्स को कोई पैसा नहीं मिला। बताया जाता है कि जय संतोषी मां फिल्म को डिस्ट्रीब्यूटर लेने के लिए तैयार नहीं थे, आखिर में केदारनाथ अग्रवाल और संदीप सेठी ने इस फिल्म को डिस्ट्रीब्यूट करने का फैसला किया।

दिवालिया हो गया था प्रोड्यूसर

‘जय संतोषी मां’ बनकर तैयार हुई और करोड़ों रुपये कमा डाले, लेकिन इस बनाने वाले को एक रुपया भी देखने को नहीं मिला। प्रोड्यूसर सतराम रोहरा ने खुद को दिवालिया घोषित कर दिया था। बताया जाता है कि केदारनाथ के भाइयों ने पैसों को लेकर धांधलीबाजी की और सारे पैसे हड़प लिए थे। ऐसे में ये पैसा सतराम और केदारनाथ तक नहीं मिला।

दर्शकों की प्रतिक्रिया: जूते बाहर, फूल हाथ में, मानो कोई तीर्थ हो

इस फिल्म ने जो किया, वह भारतीय सिने इतिहास में पहली और शायद आखिरी बार देखा गया। दर्शक सिनेमा हॉल में प्रवेश करने से पहले जूते बाहर उतार देते थे, और हाथों में फूल लेकर अंदर जाते थे। मानो वे किसी मंदिर के गर्भगृह में प्रवेश कर रहे हों। कुछ सिनेमाघरों ने तो बाकायदा ‘जूते-चप्पल स्टैंड’ और आरती की व्यवस्था तक कर दी थी। महिलाएं व्रत रखकर फिल्म देखने आती थीं, और शो के दौरान कई बार भजन गूंज उठते थे।

धार्मिक कथा से जुड़ी भावना: फिल्म जो सिर्फ देखी नहीं, ‘पूजी’ गई

फिल्म की कहानी एक गृहस्थ महिला सती की भक्ति और संतोषी माता की कृपा पर आधारित थी। सती पर ससुराल वाले अत्याचार करते हैं, लेकिन वह हर अन्याय को सहकर माता पर विश्वास बनाए रखती है। जब वह 16 शुक्रवार का व्रत करती है, तब अंत में माता संतोषी प्रकट होती हैं और उसका जीवन बदल जाता है। यह पूरी कथा उस समय की आम भारतीय नारी की पीड़ा और उसकी धार्मिक आस्था का आईना थी। फिल्म को देखकर लोग रोने लगते थे, व्रत करने लगते थे और मंदिर में जाकर कथा करवाने लगे थे।

बाद की विरासत: कथा, मंदिर और भक्ति का एक पंथ

इस फिल्म के प्रभाव से भारत के कई हिस्सों में संतोषी माता के मंदिर बनवाए गए, ‘जय संतोषी मां व्रत कथा’ किताब लाखों की संख्या में छपी और हर शुक्रवार को संतोषी माता का व्रत करना एक परंपरा बन गया। यह पहला मौका था जब सिनेमा ने एक नई देवी की स्थापना में भूमिका निभाई। यह धार्मिक प्रभाव आज भी ग्रामीण और शहरी भारत में दिखाई देता है।

जब फिल्में सिर्फ पर्दे पर नहीं, दिलों और समाज में उतर जाती हैं

‘जय संतोषी मां’ किसी व्यावसायिक गणित की सफलता नहीं थी—यह उस आस्था की जीत थी, जिसे भारतीय समाज अपने अंतर्मन में सदियों से ढोता आया है। इस फिल्म ने साबित किया कि सच्ची भावना, सरल प्रस्तुति और गहरी मानवीय संवेदना किसी भी भारी-भरकम प्रोडक्शन, बड़े स्टार्स या तकनीकी तामझाम पर भारी पड़ सकती है।

इस फिल्म ने न सिर्फ एक देवी को जनमानस में स्थापित किया, बल्कि सिनेमा और धर्म के रिश्ते को भी एक नई ऊंचाई पर पहुंचाया। आज भी ग्रामीण भारत के कोनों में संतोषी माता की व्रत कथाएं पढ़ी जाती हैं, और कहीं न कहीं इसके पीछे ‘जय संतोषी मां’ फिल्म की भूमिका निस्संदेह है।

यह फिल्म एक स्मृति है, एक परंपरा है, और भारतीय सिनेमा की उस आध्यात्मिक विरासत का प्रतीक है, जिसे न तो समय मिटा पाया है और न ही आधुनिकता धुंधला कर सकी है। जय संतोषी मां सिर्फ देखी नहीं जाती, पूजी जाती है — और यही इसकी सबसे बड़ी सफलता है।