फिल्मों के लिए माफिया से ज्यादा खतरनाक है ‘समाज’, लेनी होगी इजाजत

फिल्मों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के तौर पर जाना जाता है। कहा जाता है कि हर व्यक्ति को अपनी भावनाओं को उजागर करने का अधिकार है लेकिन पिछले कुछ वर्षों से फिल्मों के विषय को लेकर ‘समाज’ मुखरित होने लगा है, जिसके विरोध के चलते फिल्मों का प्रदर्शन नहीं हो पाता। इन समाजों पर न्यायपालिका के निर्णय का भी असर नहीं होता।

कुछ वर्ष पूर्व निर्माता निर्देशक आशुतोष गोवारिकर की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर आधारित ‘जोधा अकबर’ को राजस्थान में प्रदर्शित नहीं होने दिया गया था। इस फिल्म का करणी सेना नामक राजपूत संगठन ने विरोध किया था। उन्हें इस बात पर ऐतराज था कि फिल्म में अकबर और जोधा के प्रेम को दिखाया गया है, जो सही नहीं है।

आशुतोष गोवारिकर ने अपनी फिल्म में वही दिखाया जो वर्षों से इतिहास के पन्नों में दर्ज है। ऐसा ही कुछ हाल ही में संजय लीला भंसाली की फिल्म ‘पद्मावत’ के साथ हुआ। राजस्थान के राजपूत संगठन श्री करणी सेना द्वारा इस फिल्म का जबरदस्त विरोध किया गया, जिसके चलते न्यायपालिका को दखलंदाजी करनी पड़ी। इसके बावजूद यह फिल्म राजस्थान सहित मध्यप्रदेश, गुजरात और बिहार में प्रदर्शित न हो सकी।

अफसोस जनक बात यह है कि इन फिल्मों का विरोध फिल्म देखने से पहले ही कर लिया गया। इस ‘समाज’ ने इतनी जहमत नहीं उठाई कि वह पहले फिल्म देख ले, उसके बाद उसका विरोध करे। अफवाहों को सच मानकर इस ‘समाज’ ने विरोध को हिंसक बना लिया। अब यही समाज राजस्थान के ही एक और स्वयंभू संगठन ‘ब्राह्मण’ समाज के साथ मिलकर केतन मेहता की फिल्म ‘मणिकार्णिका: द क्वीन ऑफ झांसी’ का विरोध कर रहा है। इस फिल्म की शूटिंग आने वाले दिनों में राजस्थान के बीकानेर शहर में होनी है, जिसकी उम्मीद अब कम नजर आती है।

इन समाजों का आरोप है कि फिल्म में मणिकर्णिका यानि रानी लक्ष्मीबाई के प्रेम सम्बन्ध एक अंग्रेज अफसर के साथ दिखाये गये हैं। जैसे ही ब्राह्मण समाज को इस बात की जानकारी मिली उन्होंने एक खत लिखकर निर्माता निर्देशक को चेताया, जिसका समर्थन अब करणी सेना भी कर रही है। इस बारे में करणी सेना के संस्थापक लोकेन्द्र सिंह कालवी ने कहा कि ‘अगर ब्राह्मण का खून बहेगा तो क्या राजपूत चुप बैठेगा या राजपूत का खून बहेगा तो क्या ब्राह्मण चुप बैठेगा।

केतन मेहता की फिल्म ‘मणिकर्णिका’ एक उपन्यास पर आधारित है, जिस पर उत्तरप्रदेश सरकार ने चार साल पूर्व प्रतिबंध लगा दिया था। इस उपन्यास की लेखिका ने अपने कथानक में रानी लक्ष्मीबाई की वीरता के साथ-साथ उनके अंग्रेज अफसर के साथ ‘प्रेम’ का जिक्र किया है। इस उपन्यास में उन्होंने लिखा है कि रानी लक्ष्मीबाई इस अंग्रेज से मोहब्बत करती थी, उनके साथ अकेले में मिलती थीं। इसी प्रेम के चलते उस अंग्रेज अफसर ने अपनी नौकरी से इस्तीफा दे दिया था। झांसी से जब वह अफसर विदा हो रहा था तब रानी लक्ष्मीबाई फूट-फूटकर रोई थी।

यही सही है कि फिल्मकार अपनी सहूलियत को देखते हुए इतिहास आधारित कथानकों में कुछ फेरबदल करता है लेकिन वह इतिहास को झुठला नहीं सकता है। ऐसे में राजस्थान के ब्राह्मण और राजपूत संगठनों को पहले रानी लक्ष्मीबाई के इतिहास को अच्छी तरह से पढऩा चाहिए, उसके बाद इस फिल्म को देखना चाहिए, यदि कुछ गलत नजर आए तब उसका विरोध करना चाहिए।

जिस तरह से फिल्मों के विरोध में समाजों का स्वर मुखर होने लगा है उससे ऐसा संकेत मिलने लगा है कि आने वाले समय में यह ‘समाज’ बॉलीवुड में माफिया से ज्यादा प्रभावी होंगे। कुछ वक्त पहले तक बॉलीवुड ‘माफिया’ के इशारों पर नाचता था, अभी उससे छुटकारा मिला ही है कि अब यह ‘समाजों’ का खौफ। बॉलीवुड को एकसाथ मिलकर इन स्वयंभू ‘समाजों’ का विरोध करना होगा वरना हालात बद से बदतर होते जाएंगे।