दीवाली विशेष - वो बातें जो बनाती है भगवान लक्ष्मण को एक आदर्श अनुज

By: Sandeep Mon, 09 Oct 2017 2:26:04

दीवाली विशेष - वो बातें जो बनाती है भगवान लक्ष्मण को एक आदर्श अनुज

राजा दशरथ के तीसरे, और माता सुमित्रा के पुत्र लक्ष्मण रामायण के आदर्श पात्र थे जिन्हें शेषनाग का अवतार माना जाता है। रामायण के अनुसार, सभी भाइयों में वे भैया रामसे अधिक स्नेह रखते थे। उन्होंने भगवान राम और माता सीता के साथ 14 वर्षो का वनवास किया। वनवास के दौरान रावन द्वारा माता सीता का अपहरण किया जाता है, जिसमे माता सीता की खोज से लेकर माता सीता को लंका से युद्ध करके माता सीता को वापिस अयोध्या नगरी तक सकुशल लाने में भैया लक्ष्मण का सबसे बड़ा योगदान रहा। हिन्दू धर्म में सभी मंदिरों में अक्सर ही राम-सीता के साथ उनकी भी पूजा होती है। उनके अन्य भाई भरत और शत्रुघ्न थे।

# आदर्श भाई लक्ष्मण

एक आदर्श अनुज हैं। भगवान राम को जब पिता ने वनवास दिया तब भ्रात प्रेम में से वशीभूत लक्ष्मण जी ने भैया राम के साथ स्वेच्छा से वन गमन किया। भगवान राम के साथ उनकी पत्नी सीता के होने से उन्हें आमोद-प्रमोद के साधन प्राप्त है किन्तु लक्ष्मण ने समस्त आमोदों का त्याग कर केवल सेवाभाव को ही अपनाया। वास्तव में लक्ष्मण का वनवास राम के वनवास से भी अधिक महान है।

# वैराग्य की मूर्ति

जब भगवान राम को 14 वर्षो के लिए वनवास जाना पड़ा तो भ्रात परम से लक्ष्मण जी भी उनके साथ वनवास के लिए गए थे। बड़े भाई के लिये चौदह वर्षों तक अपनी पत्नी उर्मिल्ला से अलग रहना इनके वैराग्य का आदर्श उदाहरण है।

# सदाचार का आदर्श

वनवास के समय जब रावन माता सीता को पंचकुटी से उठा कर ले गया तब माता सीता की खोज करते समय जब मार्ग में सीता के आभूषण मिलते हैं तो राम लक्ष्मण से पूछते हैं "हे लक्ष्मण! क्या तुम इन आभूषणों को पहचानते हो?" लक्ष्मण ने उत्तर मे कहा "मैं न तो बाहों में बंधने वाले केयूर को पहचानता हूँ और न ही कानों के कुण्डल को। मैं तो प्रतिदिन माता सीता के चरण स्पर्श करता था। अतः उनके पैरों के नूपुर को अवश्य ही पहचानता हूँ।" माता सीता के पैरों के सिवा किसी अन्य अंग पर दृष्टि न डालने सदाचार का आदर्श है।

# लक्ष्मण के पुत्र

लक्ष्मण के अंगद तथा चन्द्रकेतु नामक दो पुत्र हुये जिन्होंने क्रमशः अंगदीया पुरी तथा चन्द्रकान्ता पुरी की स्थापना की।

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रामायण में एक घटना का वर्णन आता है जब भगवान श्री राम को न चाहते हुए भी अपनी जान से प्यारे अपने अनुज लक्ष्मण को मृत्युदंड देना पड़ता है।

घटना का वर्णन इस प्रकार है जब भगवान श्री राम लंका विजय करके अयोध्या लौट आते है और अयोध्या के राजा बन जाते है तब एक दिन यम देवता कोई महत्तवपूर्ण चर्चा करने भगवान श्री राम जी के पास आते है। चर्चा प्रारम्भ करने से पूर्व वो भगवान राम से कहते है की आप जो भी प्रतिज्ञा करते हो उसे पूर्ण करते हो। मैं भी आपसे एक वचन मांगता हूं कि जब तक मेरे और आपके बीच वार्तालाप चले तो हमारे बीच कोई नहीं आएगा और जो आएगा, उसको आपको मृत्युदंड देना पड़ेगा। भगवान राम, यम को वचन दे देते है।

राम, लक्ष्मण को यह कहते हुए द्वारपाल नियुक्त कर देते है की जब तक उनकी और यम की बात हो रही है वो किसी को भी अंदर न आने दे, अन्यथा उसे उन्हें मृत्युदंड देना पड़ेगा। लक्ष्मण भाई की आज्ञा मानकर द्वारपाल बनकर खड़े हो जाते है। लक्ष्मण को द्वारपाल बने कुछ ही समय बीतता है वहां पर ऋषि दुर्वासा का आगमन होता है।

जब दुर्वासा ने लक्ष्मण से अपने आगमन के बारे में राम को जानकारी देने के लिये कहा तो लक्ष्मण ने विनम्रता के साथ मना कर दिया। इस पर दुर्वासा क्रोधित हो गये तथा उन्होने सम्पूर्ण अयोध्या को श्राप देने की बात कही। लक्ष्मण समझ गए कि ये एक विकट स्थिति है जिसमें या तो उन्हे रामाज्ञा का उल्लङ्घन करना होगा या फिर सम्पूर्ण नगर को ऋषि के श्राप की अग्नि में झोंकना होगा। लक्ष्मण ने शीघ्र ही यह निश्चय कर लिया कि उनको स्वयं का बलिदान देना होगा ताकि वो नगर वासियों को ऋषि के श्राप से बचा सकें।

उन्होने भीतर जाकर ऋषि दुर्वासा के आगमन की सूचना दी। राम भगवान ने शीघ्रता से यम के साथ अपनी वार्तालाप समाप्त कर ऋषि दुर्वासा की आव-भगत की। परन्तु अब श्री राम दुविधा में पड़ गए क्योंकि उन्हें अपने वचन के अनुसार लक्ष्मण को मृत्यु दंड देना था। वो समझ नहीं पा रहे थे की वो अपने भाई को मृत्युदंड कैसे दे, लेकिन उन्होंने यम को वचन दिया था जिसे निभाना ही था।

इस दुविधा की स्तिथि में श्री राम ने अपने गुरु का स्मरण किया और कोई रास्ता दिखाने को कहा। गुरदेव ने कहा की अपने किसी प्रिय का त्याग, उसकी मृत्यु के समान ही है। अतः तुम अपने वचन का पालन करने के लिए लक्ष्मण का त्याग कर दो। लेकिन जैसे ही लक्ष्मण ने यह सुना तो उन्होंने राम से कहा की आप भूल कर भी मेरा त्याग नहीं करना, आप से दूर रहने से तो यह अच्छा है की मैं आपके वचन की पालना करते हुए मृत्यु को गले लगा लूँ। ऐसा कहकर लक्ष्मण जी ने जल समाधी ले ली थी।

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