नवरात्रि स्पेशल : चमत्कारी है ज्वाला देवी की ज्वाला, जानें इस मंदिर का रहस्य

नवरात्रि का त्योहार चल रहा हैं और सभी इन दिनों में माता के मंदिरों में दर्शन को उमड़ते हैं। हमारे देश में मातारानी के कई मंदिर स्थित हैं, जिनमें से कई अपनी अनोखी विशेषताओं के लिए जाने जाते हैं। आज हम आपको एक ऐसे अनोखे मंदिर के बारे में बताने जा रहे हैं जहाँ माता की मूर्ती नहीं बल्कि उसके गर्भ से निकल रही ज्वालाओं की पूजा की जाती हैं। हम बात कर रहे हैं हिमाचल प्रदेश में स्थित ज्वाला देवी मंदिर के बारे में। तो आइये जानते हैं इसके बारे में।

ज्वाला देवी मंदिर में सदियों से प्राकृतिक ज्वालाएं जल रही हैं। संख्या में कुल 9 ज्वालाएं, मां दुर्गा के 9 स्वरूपों का प्रतीक हैं। इनका रहस्य जानने के लिए पिछले कई साल से भू-वैज्ञानिक जुटे हुए हैं, लेकिन 9 किमी खुदाई करने के बाद भी उन्हें आज तक वह जगह ही नहीं मिली जहां से प्राकृतिक गैस निकलती हो।

सबसे पहले इस मंदिर का निर्माण राजा भूमि चंद ने कराया था। यहां पर पृथ्वी के गर्भ निकलती इन ज्वालाओं पर ही मंदिर बना दिया गया हैं। इन 9 ज्योतियों को महाकाली, अन्नपूर्णा, चंडी, हिंगलाज, विंध्यावासिनी, महालक्ष्मी, सरस्वती, अम्बिका, अंजीदेवी के नाम से पूजा जाता है। बाद में 1835 में महाराजा रणजीत सिंह और राजा संसार चंद ने इस मंदिर का पुननिर्माण करवाया।

ब्रिटिश हुकूमत के वक्त अंग्रेजों ने ज्वाला देवी मंदिर की ज्वाला का रहस्य जानने और जमीन के नीचे दबी ऊर्जा का उपयोग करने की बहुत कोशिश की, लेकिन लाख कोशिशों के बाद भी उनके हाथ कुछ नहीं लगा। आजादी के बाद भूगर्भ वैज्ञानिकों ने भी इस दिशा में प्रयास किए लेकिन मंदिर में निकलती ज्वालाएं रहस्य ही बनी रहीं।

ज्वाला देवी से संबंधित एक धार्मिक कथा के अनुसार, भक्त गोरखनाथ ज्वाला देवी में मां की भक्ति करते थे। वह हर समय मां के ध्यान में लीन रहते। एक बार भूख लगने पर गोरखनाथ ने मां से कहा, ‘मां आप पानी गर्म करके रखिए तब तक मैं भिक्षा लेकर आता हूं।’ जब गोरखनाथ भिक्षा लेने गए, उसी दौरान काल बदला और कलयुग आ गया। गोरखनाथ लौट नहीं पाए। मत है कि यह वही ज्वाला है, जो मां ने जलाई थी। ज्वाला देवी से कुछ दूरी पर बने कुंड के पानी से भाप उठती प्रतीत होती है। इस कुंड को गोरखनाथ की डिब्बी भी कहा जाता है। मान्यता है कि सतयुग आने और गोरखनाथ के लौटने तक यह ज्वाला जलती रहेगी।

मंदिर के चमत्कार पर शक करते हुए मुगल बादशाह अकबर ने इसे बुझाने के लिए नहर तक खुदवाई लेकिन नाकामयाब रहा। यह नहर आज भी मंदिर के बायीं ओर देखने को मिलती है। बाद में इस चमत्कार के आगे नतमस्तक होकर अकबर मंदिर में सवा मन का सोने का छत्र चढ़ाने भी पहुंचा, लेकिन माता ने उसे स्वीकार नहीं किया और वह गिरकर किसी अन्य धातु में बदल गया।

मंदिर के बारे में ध्यानू भगत की कहानी भी प्रसिद्ध है, जिसने अपनी भक्ति सिद्ध करने के लिए अपना शीश मां को चढ़ा दिया था। मान्यता है कि इस मंदिर में आकर ज्योति के दर्शन करने से हर मनोकामना पूरी होती है।