इतिहास अपनेआप में कई चीजें समेटे हुए हैं जिसके बारे में जानकर हर कोई हक्का-बक्का रह जाता हैं। इतिहास में कई घटनाएं ऐसी हुई हैं जिनके बारे में आप आज भी अनजान हैं। एक ऐसी ही अनोखी घटना के बारे में आज हम आपको बताने जा रहे हैं जिसमें कई लाखों लोगों की मौत हुई थी और गलियों में लाशें बिखरी हुई थी। हम बात कर रहे हैं मंगोल शासक चंगेज खान के पोते हलाकू खान के शासनकाल में घटी खौफनाक घटना के बारे में। यह घटना 13 फरवरी 1254 का वो दिन था, जब इराक की राजधानी बगदाद में कत्लेआम मचा था। उस समय बगदाद इस्लाम का सबसे शक्तिशाली केंद्र माना जाता था, जिसे मंगोलों ने एक झटके में तबाह कर दिया था।
हलाकू खान के कत्लेआम में कितने लोग मारे गए, इसका अंदाजा लगाना तो मुश्किल है, लेकिन कुछ इतिहासकारों का मानना है कि इसमें दो लाख से लेकर 10 लाख लोग बेरहमी से तलवार, तीर या भाले से मार डाले गए थे। इतिहास की कुछ किताबों में लिखा है कि बगदाद की गलियां उस समय लाशों से अटी पड़ी थीं। जब लाशें सड़ने लगीं और उनसे दुर्गंध निकलने लगी तो मजबूरन हलाकू खान को शहर से बाहर तंबू लगाकर रहना पड़ा था।
नवंबर 1254 में हलाकू की मंगोल फौज ने बगदाद की ओर कूच किया, जहां से खलीफा अपना इस्लामी राज चलता था। वहां पहुंचकर उसने अपनी सेना को पूर्वी और पश्चिमी हिस्सों में बांटा जो शहर से गुजरने वाली दजला नदी (टाइग्रिस नदी) के दोनों किनारों पर आक्रमण कर सकें। उसने खलीफा से पहले आत्म-समर्पण करने को कहा, लेकिन खलीफा ने ऐसा करने से इनकार कर दिया, जिसके बाद मंगोलों ने खलीफा की सेना पर हमला बोल दिया। आखिरकार खलीफा को हार का सामना करना पड़ा। कहते हैं कि इसके बाद मंगोलों ने कुछ सैनिकों को नदी में डूबो दिया तो कुछ तो बेरहमी से मार डाला।
13 फरवरी 1254 को हलाकू खान अपनी मंगोल सेना के साथ बगदाद शहर में घुस आया और एक हफ्ते तक वहां जमकर कत्लेआम मचाया। इसके अलावा मंगोलों ने वहां मौजूद पुस्तकालयों, महल, मस्जिदों और अन्य इमारतों में भी आग लगा दी। कहते हैं कि किताबों से बहती हुई स्याही से दजला नदी का पानी काला हो गया था। कहते हैं कि बगदाद के खलीफा को तो मंगोलों ने बुरी तरह मौत दी। उसे एक कालीन में लपेट दिया गया और उसके ऊपर से तब तक घोड़े दौड़ाए गए, जब तक उसने दम नहीं तोड़ दिया। वहीं, महान खोजकर्ता मार्को पोलो के मुताबिक, खलीफा को भूखा मारा गया।
कहा जाता है कि हलाकू खान के आक्रमण से पहले ईरान में सभी विद्वान अरबी भाषा में ही लिखा करते थे। बगदाद की ताकत नष्ट होने से ईरान में फारसी भाषा फिर पनपने लगी और उस काल के बाद ईरानी विद्वान और इतिहासकार फारसी में ही लिखा करते थे। बगदाद पर हलाकू खान के आक्रमणों का भारत पर भी एक बड़ा असर यह पड़ा था कि बहुत से ईरानी, अफगान और तुर्क विद्वान, शिल्पकार और अन्य लोग भागकर दिल्ली सल्तनत आकर बस गए थे। इस घटना को 700 साल से भी ज्यादा का समय बीत चुका है, लेकिन यह अब भी इतिहास की सबसे खौफनाक घटनाओं में से एक है।