
ऑपरेशन सिंदूर की सफलता के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) प्रमुख मोहन भागवत ने देश को और अधिक शक्तिशाली बनाने की आवश्यकता पर बल दिया है। उन्होंने कहा कि भारत को इतनी शक्ति संपन्न बनाना चाहिए कि कोई भी उसकी ओर आंख उठाकर देखने की हिम्मत न कर सके। यह बयान उन्होंने संघ की 100वीं वर्षगांठ से पहले ‘ऑर्गनाइजर’ नामक संघ के अंग्रेजी मुखपत्र को दिए गए विशेष साक्षात्कार में दिया।
भागवत ने स्पष्ट किया कि भारत की ताकत किसी पर शासन करने या प्रभुत्व जताने के लिए नहीं है, बल्कि इस उद्देश्य से है कि हर नागरिक शांतिपूर्ण, स्वस्थ और सशक्त जीवन जी सके। उन्होंने कहा कि “हम दुनिया पर प्रभुत्व जमाने के लिए ताकत नहीं चाहते, बल्कि यह सुनिश्चित करने के लिए ताकत चाहते हैं कि हमारे देश और नागरिकों की रक्षा हो सके। हमारी सीमाओं पर जिस प्रकार से दुष्ट शक्तियों की गतिविधियां चल रही हैं, उन्हें देखते हुए हमारे पास मजबूती के अलावा कोई विकल्प नहीं है।”
उन्होंने यह भी जोर देकर कहा कि राष्ट्रीय सुरक्षा केवल सरकार की जिम्मेदारी नहीं है, यह पूरे समाज की जिम्मेदारी है। उन्होंने हिंदू समाज को एकजुट और सशक्त होने का आह्वान किया और कहा, “अपनी रक्षा खुद करनी होगी, किसी और के भरोसे नहीं रह सकते।”
भागवत ने यह भी कहा कि जब हिंदू समाज आत्मबल से भरपूर और एकजुट होता है, तो पूरी दुनिया उसका सम्मान करती है। उन्होंने विदेशों में हिंदुओं पर हो रहे हमलों की चर्चा करते हुए कहा, “जब हिंदू समाज कमजोर होता है, तब वह निशाना बनता है। लेकिन जब वह शक्ति के साथ खड़ा होता है, तो पूरी दुनिया नोटिस करती है।”
उन्होंने राष्ट्रीय सुरक्षा को एक व्यापक दृष्टिकोण से देखा और इसे जातिगत एकता, पारिवारिक मूल्यों और पर्यावरण संरक्षण जैसी सामाजिक जिम्मेदारियों से जोड़ा। उन्होंने सवाल उठाया कि “अगर समाज ही विभाजित हो तो वह खुद की सुरक्षा कैसे करेगा?” साथ ही उन्होंने यह बताया कि संघ के ‘पंच परिवर्तन’ (पांच बदलाव) का विचार ही राष्ट्रीय सुरक्षा की नींव है।
भीतर से आने वाली ताकत जरूरीभागवत ने आत्मनिर्भरता और आत्मबल को सुरक्षा की असली कुंजी बताया। उन्होंने कहा कि ऐसी शक्ति अर्जित करनी होगी कि विश्व की कोई शक्ति भारत को परास्त न कर सके। “सच्ची ताकत भीतर से आती है,” उन्होंने कहा। उन्होंने आगे बताया कि “हमें अपनी सुरक्षा के लिए दूसरों पर निर्भर नहीं रहना चाहिए, बल्कि खुद को इतना सक्षम बनाना चाहिए कि चाहे कितनी भी ताकतें एक साथ मिल जाएं, वे हमें हरा न सकें। हम युद्ध नहीं चाहते, लेकिन हमारी तैयारी ऐसी होनी चाहिए कि युद्ध की नौबत ही न आए।”
उन्होंने सुरक्षा को केवल सीमाओं और सैन्य बल तक सीमित न रखते हुए इसे सभ्यता, संस्कृति और मानसिकता से जोड़ा। उन्होंने पाकिस्तान और बांग्लादेश के हिंदू अल्पसंख्यकों का उदाहरण देते हुए कहा कि अब वहां के हिंदू अपने अधिकारों के लिए डटकर खड़े हो रहे हैं। उन्होंने कहा, “पहले वे डरकर भागते थे, लेकिन अब वे कह रहे हैं कि हम यहीं रहेंगे और अपने अधिकारों की लड़ाई लड़ेंगे।” उन्होंने इसे हिंदू समाज की आंतरिक शक्ति में वृद्धि का प्रमाण बताया।
भागवत ने यह भी स्पष्ट किया कि संघ विश्व के किसी भी कोने में बसे हिंदुओं की हर संभव सहायता करने को तैयार है, बशर्ते वह अंतरराष्ट्रीय नियमों और मर्यादाओं के दायरे में हो। उन्होंने कहा कि “संघ का उद्देश्य ही यही है – हर हिंदू की रक्षा और उसके हितों की सुरक्षा।”
उनका यह बयान न केवल भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा को सुदृढ़ बनाने की दिशा में, बल्कि हिंदू समाज को एकजुट करने के बड़े संदेश के रूप में भी देखा जा रहा है।