महाकुंभ में जूना अखाड़े से जुड़ी 200 महिलाएं दीक्षा लेकर संन्यास का मार्ग अपनाने जा रही हैं। यह आयोजन न केवल आस्था और परंपरा का संगम है, बल्कि एक नए आध्यात्मिक जीवन की शुरुआत का प्रतीक भी है। महंत दिव्यगिरी के अनुसार, दीक्षा लेने वाली महिलाएं पहले अवधूतानी कहलाती हैं और दीक्षा की पूरी प्रक्रिया पूरी करने के बाद संन्यासिनी बनती हैं। दीक्षा की शुरुआत पंच दीक्षा से होती है, जिसमें गुरु अपने शिष्यों को महामंत्र प्रदान करते हैं। इसके बाद मुंडन संस्कार किया जाता है और धर्म ध्वजा के समक्ष सभी अवधूतानियों को बैठाकर उन्हें यह महामंत्र जपने को कहा जाता है। इसके बाद पिंडदान की प्रक्रिया होती है जिसमें महिलाएं स्वयं अपना पिंडदान करती हैं। यह अनुष्ठान तट पर भोर में आयोजित किया जाता है और इसका उद्देश्य संन्यासी के पिछले जीवन से पूर्णत: मुक्ति को सुनिश्चित करना है। पिंडदान के बाद महिलाएं संगम में 108 बार डुबकी लगाती हैं, और उन्हें दंड कमल प्रदान किया जाता है, जो उनके अधिकार और नई जिम्मेदारियों का प्रतीक है। दीक्षा की पूरी प्रक्रिया 24 घंटे की होती है, जिसमें दीक्षा लेने वाली महिलाएं बिना खाए-पिए मंत्रों का जाप करती हैं।
सुबह करीब 2 बजे संगम में स्नान और डुबकी लगाने के बाद वे नए वस्त्र धारण करती हैं और अपने आचार्य से आशीर्वाद लेकर नए जीवन की शुरुआत करती हैं। संन्यास के बाद महिलाएं अपनी रुचि और स्वभाव के अनुसार भक्ति, ज्ञान, योग या तपस्या का मार्ग चुनती हैं। गुरु का आशीर्वाद लेकर वे पूरे जीवन समाज को भक्ति, साधना और आध्यात्मिकता का संदेश देती हैं। यह प्रक्रिया न केवल हमारे समाज की आध्यात्मिक परंपरा को सशक्त करती है, बल्कि महिलाओं के लिए संन्यास के पवित्र मार्ग को भी उजागर करती है। महाकुंभ का यह आयोजन विविधता और समरसता के साथ हमारी परंपराओं की शक्ति का प्रमाण है।