ऐतिहासिक करतारपुर कॉरिडोर की तस्वीरें आई सामने, देखिए

श्री गुरु नानक देव जी के 550वें प्रकाश पर्व पर पाकिस्तान स्थित करतारपुर साहिब के दर्शन करने के लिए बना करतारपुर कॉरिडोर आज खुल गया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Pm Narendra Modi) ने करतारपुर गलियारे (Kartarpur Corridor)के रास्ते पंजाब प्रांत में स्थित गुरुद्वारा दरबार साहिब जाने वाले सिख श्रद्धालुओं के पहले जत्थे को हरी झंडी दिखाकर रवाना किया। पीएम मोदी ने कहा, 'यह मेरा सौभाग्य है कि मैं आज देश को करतारपुर साहब कॉरिडोर समर्पित कर रहा हूं। इस दौरान पीएम मोदी ने पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान का धन्यवाद किया। उन्होंने कहा, 'मैं इमरान खान का बहुत-बहुत आभार व्यक्त करता हूं, जिन्होंने भारतीय सिख श्रद्धालुओं की भावनाओं को समझा।' पीएम मोदी ने कहा कि आज इस पवित्र धरती पर आकर मैं धन्यता का अनुभव कर रहा हूं। उन्होंने कहा कि गुरु नानक देव जी, सिर्फ सिख पंथ की भारत की ही धरोहर नहीं, बल्कि पूरी मानवता के लिए प्रेरणा पुंज हैं।' करतारपुर कॉरिडोर को बनने के बाद गुरुद्वारे के दर्शन आसान हो जाएंगे। 'गुरु नानक देव जी के 550वें प्रकाश-उत्सव से पहले, इंटीग्रेटेड चेकपोस्ट, करतारपुर साहिब कॉरिडोर का खुलना, हम सभी के लिए दोहरी खुशी लेकर आया है। इस कॉरिडोर के बनने के बाद अब गुरुद्वारा दरबार साहब के दर्शन आसान हो जाएंगे। प्रधानमंत्री ने कहा, ‘केंद्र सरकार ने एक और महत्वपूर्ण फैसला लिया है, जिसका लाभ दुनियाभर में बसे अनेक सिख परिवारों को हुआ है। कई सालों से, कुछ लोगों को भारत में आने पर जो दिक्कत थी, अब उन दिक्कतों को दूर कर दिया गया है।’ पीएम मोदी ने कहा कि मैं इसके लिए पंजाब सरकार और इससे जुड़े सभी लोगों को धन्यवाद करता हूं।

‘श्री ननकाना साहिब ते होर गुरुद्वारेयां, गुरुधामां दे, जिनां तों पंथ नूं विछोड़या गया है, खुले दर्शन दीदार ते सेवा संभाल दा दान खालसा जी नूं बख्शो।।’ (ननकाना साहिब और बाकी गुरुद्वारे या गुरुधाम जो बंटवारे के चलते पाकिस्तान में रह गए उनके खुले दर्शन सिख कर सकें, इसकी हम मांग करते हैं।) 1947 में हुए बंटवारे के बाद सिखों की अरदास में इस लाइन को जोड़ा गया। ऐसा इसलिए किया गया, क्योंकि बंटवारे के बाद कई ऐतिहासिक गुरुद्वारे पाकिस्तान की तरफ रह गए। इन गुरुद्वारों में पंजा साहिब, ननकाना साहिब, डेरा साहिब लाहौर और करतारपुर साहिब खास तौर पर शामिल हैं। इन गुरुद्वारों में भारतीयों के जाने पर पाबंदी थी। लेकिन अब भारतीय सिख संगत का लंबा इंतजार शनिवार को खत्म हो गया।

पाकिस्तान ने ऐतिहासिक गुरुद्वारा करतारपुर साहिब को भारत के साथ जोड़ने के लिए सहमति जताई। दोनों देशों के बीच एक समझौते के तहत ही इस कॉरिडोर का निर्माण किया गया है। कॉरिडोर के जरिए पाकिस्तान के कस्बे करतारपुर को पंजाब के गुरुदासपुर जिले में स्थित डेरा बाबा नानक के साथ जोड़ा गया है। भारत से लगी सीमा से करीब चार किलोमीटर दूर पाकिस्तान के पंजाब प्रांत में रावी नदी के किनारे स्थित श्री करतारपुर साहिब गुरुद्वारा सिखों का पवित्र तीर्थ स्थल है। यह लाहौर से 120 किमी दूर स्थित है। गुरु नानक जी के माता-पिता का देहांत भी यहीं पर हुआ था। यहां बाबा नानक ने अपनी जिंदगी का अंतिम समय बिताया था। यहां उन्होंने 17 वर्ष 5 माह 9 दिन अपने हाथों से खेती तक की। इसी स्थान से उन्होंने समूची मानवता को काम करने तथा बांट कर खाने जैसे उपदेश दिए थे।

श्री गुरु नानक देव जी ने ही करतारपुर साहिब की स्थापना की थी और अपनी सभी उदासियों के बाद गुरु नानक देव जी करतारपुर में ही रहने लगे थे, जहां आज गुरुद्वारा करतारपुर साहिब मौजूद है। आस्था और इतिहास, दोनों के लिहाज से करतारपुर बहुत अहमियत रखता है। जब भारत का बंटवारा हुआ, तो पाकिस्तान की तरफ रहने वाले लाखों सिख भारत आ गए। उसके बाद श्री करतारपुर साहिब का स्थल बंटवारे के बाद कई सालों तक उजाड़ रहा, मगर उस दौर में भी बाबा नानक के कुछ मुसलमान भक्त वक्त-वक्त पर यहां दर्शन के लिए आते रहे। करतारपुर गुरुद्वारा में बाबा नानक की समाधि और कब्र आज भी मौजूद है।

कब्र बाहर आंगन में है, और समाधि इमारत के अंदर। आज भी मुसलमान श्री गुरु नानक की दर पर आते हैं। सिखों के लिए बाबा नानक जहां उनके गुरु हैं, वहीं मुसलमानों के लिए नानक उनके पीर हैं। पुरानी इमारत, जिसे गुरु नानक देव जी ने बनवाया था वो बाढ़ में बर्बाद हो गई थी। 1920-1929 तक महाराजा पटियाला भूपिंदर सिंह ने गुरुद्वारा फिर से बनवाया, जिस पर उस समय एक लाख 35 हजार 600 रुपये का खर्च आया था। आस-पास के गांवों के मुसलमान गुरुद्वारे के लंगर के लिए चंदा देते हैं। अभी गुरुद्वारे की जो इमारत है, वह नई है जो 2001 में बनाई गई थी। यहां बंटवारे के बाद पहली बार लंगर तभी लगा था।

दूसरी ओर, भारत में रावी नदी के किनारे श्री गुरु नानक देव जी का याद में बनाया गया डेरा बाबा नानक स्थित है। यह भारत-पाकिस्तान बॉर्डर से लगभग एक किलोमीटर दूर है। यह पंजाब के गुरदासपुर जिले में आता है। माना जाता है कि बाबा नानक यहां 12 साल तक रहे। मक्का जाने पर उनको दिए गए कपड़े यहां संरक्षित हैं। माघी के अवसर पर जनवरी के दूसरे सप्ताह में यहां भारी संख्या में श्रद्धालु आते हैं। गुरु नानक देव जी ने 1506 में अपनी पहली उदासी के बाद इस जगह को ध्यान लगाने के लिए चुना था। जहां वह ध्यान लगाने बैठे थे, वहां एक कुआं था जिसे अजीता रंधावा दा खू (कुआं) के नाम से जाना जाता था।

सिख इतिहास के अनुसार, श्री गुरु नानक देव जी 1522 में करतारपुर साहिब आकर रहने लगे थे। इसी पवित्र स्थान पर श्री गुरु नानक देव जी ने 22 सितंबर 1539 को आखिरी सांस ली। इससे पहले उन्होंने इसी स्थान पर दूसरे गुरु अंगद देव साहिब को गद्दी सौंपी थी।

पाकिस्तान के 4 गुरुद्वारे जहां कण-कण में नानक

गुरुद्वारा ननकाना साहिब (लाहौर)

लाहौर से करीब 80 किलोमीटर दूर गुरु नानक जी का जन्म स्थान है। पहले इसे राय भोए दी तलवंडी के नाम से जानते थे। नानक जी के जन्म स्थान से जुड़ा होने से अब यह ननकाना साहिब बन गया है। गुरुद्वारा ननकाना साहिब लगभग 18,750 एकड़ में है। ये जमीन तलवंडी गांव के एक मुस्लिम मुखिया राय बुलार भट्टी ने दी थी।

करतारपुर साहिब (नारोवाल)

सिखों के सबसे पवित्र तीर्थ स्थलों में से एक है। गुरु नानक 4 यात्राओं को पूरा करने के बाद यहीं बसे थे। यहां उन्होंने हल चलाकर खेती की। गुरु जी अपने जीवन काल के अंतिम 18 वर्ष यहीं रहे और यहीं अंतिम समाधि ली। यहीं गुरु जी ने रावी नदी के किनारे ‘नाम जपो, किरत करो और वंड छको’ का उपदेश दिया था। लंगर की शुरुआत भी यहीं से हुई थी। यह नारोवाल जिले में है।

गुरुद्वारा पंजा साहिब (रावलपिंडी)

रावलपिंडी से 48 किलोमीटर दूर है। बताते हैं कि एक बार गुरु जी अंतरध्यान में थे, तभी वली कंधारी ने पहाड़ के ऊपर से एक विशाल पत्थर को गुरु जी पर फेंका। जब पत्थर उनकी तरफ आ रहा था, तभी गुरु जी ने अपना पंजा उठाया और वह पत्थर वहीं हवा में ही रुक गया। इस कारण गुरुद्वारे का नाम 'पंजा साहिब' पड़ा। आज भी पंजे के निशान ज्यों के त्यों है।

गुरुद्वारा चोआ साहिब (पंजाब प्रांत)

यहां श्री गुरु नानक देव जी ठहरे थे, यह जगह 72 साल बाद 550वें प्रकाश पर्व पर श्रद्धालुओं के लिए खोली गई है। यह पाकिस्तान के पंजाब प्रांत में मौजूद है। इस गुरुद्वारा साहिब को महाराजा रणजीत सिंह ने बनवाने का काम शुरू किया था, जो 1834 में बनकर पूरा हुआ। 72 वर्ष बंद रहे इस गुरुद्वारे में बनी भित्ति चित्रकला लगभग लुप्त हो चुकी है।