कारगिल विजय दिवस : घर पर किसी को भी नहीं दी युद्ध में जाने की जानकारी, परिवार कों हैं फक्र

कारगिल युद्ध का वह समय जब सेना के सामने कई परेशनियां थी लेकिन जवानों के जोश और शौर्य के आगे दुश्मन को पीठ दिखाकर भागना पड़ा था। कारगिल युद्ध के दौरान 'ऑपरेशन विजय' चलाया गया था जो कि 26 जुलाई, 1999 को पूर्ण हुआ था। इसलिए इस दिन को हर साल कारगिल विजय दिवस के रूप में मनाया जाता हैं। 2 महीने से भी अधिक चले इस युद्ध में देश के कई जवानों ने इस मिट्टी के लिए शहादत दी हैं। इन्हीं शहीदों में से एक नाम हैं शहीद हुए लांस नायक सत्यपाल सिंह।

सत्यपाल सिंह जितने बहादुर थे, उतना ही बहादुर उनका परिवार भी है। वीर नारी बबीता देवी के इस हौसले को सलाम कि उन्होंने पति की शहादत के बाद भी बच्चों को सेना में जाने का पाठ सिखाया। उनकी बेटी दिव्या सेना में अफसर बनने की तैयारी में जुटी हैं। वे कहती हैं कि मुझे फख्र है अपने पिता पर, जिन्हें मैंने देखा तो नहीं, लेकिन उनकी बहादुरी के किस्से सेना के जवानों-अफसरों की जुबानी खूब सुने हैं।

शहीद सत्यपाल सिंह मूलरूप से गढ़मुक्तेश्वर के गांव लुहारी के रहने वाले थे। फिलहाल उनका परिवार मेरठ में कंकरखेड़ा के डिफेंस एनक्लेव में रहता है। वीर नारी बबीता देवी बताती हैं कि 1999 में वे छुट्टी काटकर ग्वालियर पहुंचे तो उनका तबादला जम्मू हो गया। बटालियन जम्मू पहुंची ही थी कि कारगिल की जंग शुरू हो गई। उनकी बटालियन सेकेंड राजपूताना राइफल्स को कारगिल पहुंचने के आदेश हुए। वह लड़ाई में चले गए, लेकिन घर पर इसकी जानकारी किसी को नहीं दी।

जंग में उनकी यूनिट के तीन साथी सैदपुर गुलावठी के चमन, सुरेंद्र और जसवीर के शहीद होने की खबर आई तो परिजन चिंता में पड़ गए। उनको चिट्ठी लिखी तो पता चला कि वे भी कारगिल में मोर्चें पर हैं। चिट्ठी में जवाब आया कि उनकी यूनिट ने तोलोलिंग चोटी पर कब्जा कर लिया है और लड़ाई जारी है। युद्ध खत्म होने से पहले नहीं आ पाऊंगा। चिंता मत करना। मैं ठीक हूं। इस चिट्ठी के बाद 2 जुलाई 1999 को थाने से सूचना आई कि 28 जून को लांस नायक सत्यपाल सिंह द्रास सेक्टर में शहीद हो गए।