आत्महत्या का अपना एक विस्तृत मनोवैज्ञानिक पहलू है। कई लोग इस पर तर्क कर सकते हैं कि खुदकुशी करने वाले ने सही किया या ग़लत लेकिन इससे आत्महत्या करने वाले की आत्मा को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। वह जा चुका होता है लेकिन कोई और ऐसा प्रयास न करे, इसका जतन तो हमें करते रहना चाहिए क्योंकि ज़िंदगी से क़ीमती इस दुनिया में कुछ भी नहीं।
यह कायरता है या हिम्मत?
आत्महत्या करना कायरता है या यह
हिम्मत वालों का काम है? इस पर भी कई कई दिनों तक बहस की जा सकती है।
कायरता कहने वाले कहेंगे कि उसे अपनी ज़िंदगी से लड़ना चाहिए था, उसे अपनी
समस्याओं का समाधान खोजना चाहिए था, उसे लोगों की मदद लेना चाहिए थी... कुछ
भी करके उसे अपना जीवन बाक़ी रखना चाहिए था।
जो इसके विरोध में
होंगे वे कहेंगे कि कायरता कैसी? कोई व्यक्ति अपनी इकलौती जान दे दे, इसके
लिए बहुत हिम्मत की ज़रूरत होती है। यह काम कायरों के बस का नहीं। इस अंतहीन
बहस में कौन जीतेगा यह तो हम नहीं जानते। यह तो ठीक-ठीक आत्महत्या करने
वाले ही बता सकते हैं कि उन्होंने जान बहादुरी के कारण दी थी या फिर वह
डरते हुए मरा था।
सुसाइड नोट की साइकोलॉजी
आत्महत्या
करने से पहले जो लोग सुसाइड नोट लिखते हैं, उसका भी अपना मनोविज्ञान है। कई
बार यह किसी से बदला लेने के लिए होता है तो कई बार यह किसी को माफ़ करने
के लिए होता है। लेकिन सुसाइड नोट अपनों को हमेशा पीड़ा देता है। वे जब भी
इसे पढ़ते हैं, याद करते हैं तो उन्हें पीड़ा होती है। मरने वाला उन्हें
ज़िंदगी भर रुलाने की वजह देकर जाता है।
सुसाइड करने वाले शायद यह
सोचते हैं कि उनकी आत्मा या रूह यह नोट पढ़ते हुए लोगों को देखेगी।
अर्थव्यवस्था का एक नियम है कि किसी वस्तु को बाज़ार से हटा लेने पर उसकी
क़ीमत बढ़ जाती है। लोग अपने बारे में भी ऐसा सोचते हैं।
ख़ुद को
लोगों से अलग करने का सबसे बड़ा क़दम आत्महत्या करना है। लेकिन, आत्महत्या
करने वाला यह भूल जाता है कि बढ़ी हुई क़ीमत का महत्व तब है, जबकि आप फिर
से उपलब्ध हों और दुर्भाग्य से आत्महत्या करने वाला अपनी हत्या सदा के लिए
कर चुका होता है तो ऐसे में उसका फिर से लोगों के बीच आना नामुमक़िन है।
ज़िंदगी फ़िल्म नहीं है
कई
लोग जब आत्महत्या करते हैं तो उससे पहले उनके ज़हन में फ़िल्मों वाला एक
सीन आता है जिसमें कि घर वाले और दोस्त उसकी लाश के पास बैठकर रो रहे हैं,
बिलख रहे हैं और यह सब उसकी आत्मा देख रही है। लेकिन, दुर्भाग्य से यह सब
सिर्फ़ फ़िल्मी बातें हैं। आपकी रूह को ऐसा कुछ भी पता नहीं चलता। वह तो
चली जाती है किसी और दुनिया में और यदि आप यह विश्वास रखते हैं कि वह दूसरी
दुनिया वह है, जो हमारे धर्मों ने बताई है तो याद रखिए कि धर्मों के
क़ानूनों के अनुसार आपकी रूह को वहां भी सुकून नहीं मिलेगा। और यदि आप
नास्तिक हैं तो विज्ञान तो रूह और पुनर्जन्म को मानता ही नहीं है। ऐसे में
आपके हाथ से सब कुछ चला गया।
आत्महत्या के बारे में सभी विशेषज्ञ इस
बात पर एकमत हैं कि आत्महत्या करने वाला व्यक्ति कभी भी अचानक आत्महत्या
नहीं करता। वह कुछ निशानियां लोगों के सामने प्रकट ज़रूर करता है। निराश और
उदास चेहरा, परेशान और रोती हुई आंखें, गुमसुम अकेला रहने का दिल चाहना,
किसी बात में दिल ना लगना, वह काम जिसमें सब ख़ुश होते हैं उसमें भी उसका
गुमसुम बैठे रहना, जब सब किसी बात पर ठहाके लगा रहे हो तो उसका बस लोगों का
दिल रखने के लिए थोड़ा सा हंस देना... अपनों में और ख़ुद में यह निशानियां
देखते रहा करें।
दुनिया में आत्महत्या बहुत से लोग करते हैं लेकिन,
सबसे ज़्यादा वे लोग होते हैं, जो भीड़ में ख़ुद को अकेला महसूस करते हैं।
उन्हें सब तरफ़ लोग तो दिखाई देते हैं लेकिन कोई अपना नहीं दिखता या वे
अपनों को अपना मानने के लिए तैयार ही नहीं होते। जब दुनिया बेगानी लगती है
तो फिर उन्हें मृत्यु अपनी लगने लगती है... जो कि उनका भ्रम होता है।