परिंदों का स्वर्ग कहलाता है राजस्थान का बूँदी, वन्य जीवों के कारण पर्यटन क्षेत्र में है अलग पहचान

बूँदी को परिंदों का स्वर्ग कहा जाता है। छोटीकाशी के नाम से प्रसिद्ध बूंदी जिले में प्राकृतिक सौंदर्य है। यह अपनी संस्कृति, लोक परम्पराओं और ऐतिहासिक धरोहर व स्थानीय पक्षियों की पसंदीदा सैरगाह के रूप में प्रसिद्ध रहा है। अरावली की पर्वत श्रृंखलाएँ बूंदी को और भी मनोरम बनाती हैं। वन एवं वन्य जीवों से बूंदी समृद्ध व इनके लिए प्रसिद्ध है। नैसर्गिक सुषमा से समृद्ध इस अंचल में जलाशयों के तटों व वृक्षों पर विचरण करते देशी-विदेशी पक्षी और सघन वनाच्छादित क्षेत्रों में उन्मुक्त घूमते वन्यजीवों से बूंदी जिले की पहचान बनती है। बूंदी जिले में रणथंभौर बाघ परियोजना, मुकुंदरा टाइगर रिजर्व, रामगढ़ विषधारी अभ्यारण, चंबल घड़ियाल अभ्यारण व जवाहर सागर अभ्यारण का भाग सम्मिलित है। जिले में वर्तमान में 1542.42 वर्ग किलोमीटर वन भूमि है जो कि जिले के भौगोलिक क्षेत्रफल का 26.70% है।

जिला मुख्यालय बूंदी सहित जिले के 9 विभिन्न जलाशयों में शीतकाल के आरंभ होते ही देश-विदेश के विभिन्न हिस्सों से बड़ी संख्या में प्रवासी पक्षी आते हैं। इस दौरान इन जलाशयों में विचरते पक्षियों की चहचाहट यहाँ की आबोहवा में जीवंतता पैदा करती है। बूंदी जिले में मुख्य रूप से 9 बर्ड वाचिंग प्वाइंट है -

जैत सागर
अभय पुरा बांध
बरधा बांध
गुढा बांध
इंद्राणी बांध
कनक सागर बांध
नारायणपुर बांध
राम सागर बांध
रतन सागर झील

इन जलाशयों के साथ ही चंबल में जलभराव क्षेत्रों में बड़ी संख्या में पक्षियों को विचरण करते हुए देखा जा सकता है। इन जलाशयों में बार हेडेड गीज, कॉमन टील, पेलिकन, नार्दन पिनटेल, इंडियन स्कीमर, रिवर टर्न, पर्पल हेरोन, पोण्ड हेरोन, कोम्ब डक, पेंटेड स्टोर्क, वूली नेकेड स्टार्क, डार्टर कॉरमाण्ट, ग्रेटर स्पॉटेड ईगल, नॉर्दन शावलेवर, स्पॉट बिल डक, तथा और भी विभिन्न प्रजाति के एग्रेट्स भी दिखाई देते हैं। स्थानीय पक्षियों में कबूतर, तोता, मोर पक्षी, सारस क्रेन आदि दिखाई देते हैं।

दर्शनीय स्थल

यहाँ चौरासी खंभों की छतरी एक बरामदा है जो 84 खंभों पर स्थित है। इसे राव अनिरुद्ध सिंह ने 1740 में नर्स (परिचारिका) देवा द्वारा की गई सेवाओं के प्रति सम्मान प्रकट करने हेतु बनवाया था। यहां तारागढ़ बूंदी दुर्ग भी दर्शनीय स्थल है।

विवरण

बूँदी एक पूर्व रियासत थी। इसकी स्थापना सन 1242 ई. में राव देवाजी ने की थी। बूँदी पहाड़ियों से घिरा सघन वनाच्छादित सुरम्य नगर है। राजस्थान का महत्त्वपूर्ण पर्यटन स्थल है।बूंदी परकोटे के चार द्वार है—चौगान द्वार, मीरा द्वार, खोजा द्वार, लंका द्वार, जोकि चारों दिशाओं में खुलते हैं । चौगान द्वार पर बनी मोरनी मनमोहक एक सुंदर चित्रण शैली का द्योतक है।

इतिहास

बूँदी की स्थापना राव देवा हाड़ा ने 1242 मे जैता मीना को हरा कर की। नगर की दोनों पहाड़ियों के मध्य बून्दी की नाल नाम से प्रसिद्ध नाल के कारण नगर का नाम बून्दी रखा गया। बाद में इसी नाल का पानी रोक कर नवलसागर झील का निर्माण कराया गया। राजा देव सिंह जी के उपरान्त राजा बरसिंह ने पहाड़ी पर 1354 में तारागढ़ नामक दुर्ग का निर्माण करवाया। साथ ही दुर्ग में महल और कुण्ड-बावड़ियों को बनवाया। 14वीं से 17वीं शताब्दी के बीच तलहटी पर भव्य महल का निर्माण कराया गया। सन् 1620 को राव रतन सिंह जी ने महल में प्रवेश के लिए भव्य पोल (दरवाज़ा) का निर्माण कराया। पोल को दो हाथी की प्रतिमूर्तियों से सजाया गया उसे हाथीपोल कहा जाता है। राजमहल में अनेक महल साथ ही दीवान- ए - आम और दीवान- ए - खास बनवाये गये। बूँदी अपनी विशिष्ट चित्रकला शैली के लिए विख्यात है, इसे महाराव राजा श्रीजी उम्मेद सिंह ने बनवाया जो अपनी चित्रशैली के लिए विश्वविख्यात हैं। बूँदी के विषयों में शिकार, सवारी, रामलीला, स्नानरत नायिका, विचरण करते हाथी, शेर, हिरण, गगनचारी पक्षी, पेड़ों पर फुदकते शाखामृग आदि रहे हैं।

चित्रकला

श्रावण-भादों में नाचते हुए मोर बूँदी के चित्रांकन परम्परा में बहुत सुन्दर बन पड़े हैं। यहाँ के चित्रों में नारी पात्र बहुत लुभावने प्रतीत होते हैं। नारी चित्रण में तीखी नाक, पतली कमर, छोटे व गोल चेहरे आदि मुख्य विशिष्टताएँ हैं। स्त्रियाँ लाल-पीले वस्त्र पहने अधिक दिखायी गयी हैं। बूँदी शैली की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण विशेषता पृष्ठ भूमि के भू-दृश्य हैं। चित्रों में कदली, आम व पीपल के वृक्षों के साथ-साथ फूल-पत्तियों और बेलों को चित्रित किया गया है। चित्र के ऊपर वृक्षावली बनाना एवं नीचे पानी, कमल, बत्तख़ें आदि चित्रित करना बूँदी चित्रकला की विशेषता रही।

प्रमुख शैलियाँ

मुग़लों की मित्रता के बाद यहाँ की चित्रकला में नया मोड़ आया। यहाँ की चित्रकला पर उत्तरोत्तर मुगल प्रभाव बढ़ने लगा। राव रत्नसिंह (1631- 1658 ई.) ने कई चित्रकारों को दरबार में आश्रय दिया। शासकों के सहयोग एवं समर्थन तथा अनुकूल परिस्थितियों और नगर के भौगोलिक परिवेश की वजह से सत्रहवीं शताब्दी में बूँदी ने चित्रकला के क्षेत्र में काफ़ी प्रगति की। चित्रों में बाग, फ़व्वारे, फूलों की कतारें, तारों भरी रातें आदि का समावेश मुग़ल प्रभाव से होने लगा और साथ ही स्थानीय शैली भी विकसित होती रही। चित्रों में पेड़ पौधें, बतख तथा मयूरों का अंकन बूँदी शैली के अनुकूल है। सन 1692 ई. के एक चित्र बसंतरागिनी में बूँदी शैली और भी समृद्ध दिखायी देती है। कालांतर में बूँदी शैली समृद्धि की ऊँचाइयों को छूने लगी।

तारागढ का दुर्ग

यह अरावली पर्वत पर स्थित है। इसे 'राजस्थान का जिब्राल्टर नगर पंचायत गंगापुर जिला वाराणसी की कुजी' भी कहा जाता है। अजमेर शहर के दक्षिण-पश्चिम में ढाई दिन के झौंपडे के पीछे स्थित यह दुर्ग तारागढ की पहाडी पर 700 फीट की ऊँचाई पर स्थित हैं। इस क़िले का निर्माण 11वीं सदी में सम्राट अजय पाल चौहान ने विदेशी या तुर्कों के आक्रमणों से रक्षा हेतु करवाया था। क़िले में एक प्रसिद्ध दरगाह और 7 पानी के झालरें भी हैं। बूंदी का किला 1426 फीट ऊचें पर्वत शिखर पर बना है मेवाड़ के कुंवर पृथ्वीराज ने अपनी पत्नी तारा के कहने पर इस का पुनः विकास किया, जिसके कारण यह तारागढ़ के नाम से प्रसिद्ध है।

बूंदी का तारागढ़


अरावली पहाड़ी की खड़ी ढलान पर बने इस दुर्ग में प्रवेश करने के लिए तीन विशाल द्वार बनाए गए हैं। इस दुर्ग का निर्माण राव बरसिंह हाडा ने करवाया। इसके दरवाजों का नाम इन्हें लक्ष्मी पोल, हाथीपोल, फूटा दरवाजा और गागुड़ी का फाटक के नाम से जाना जाता है। महल के द्वार हाथी पोल पर बनी विशाल हाथियों की जोड़ी है। इस किले के भीतर बने महल अपनी शिल्पकला एवं भित्ति चित्रों के कारण अद्वितीय है। इन महलों में छत्रमहल, अनिरूद्ध महल, रतन महल, बादल महल और फूल महल प्रमुख हैं।

गर्भ गुंजन

किले की भीम बुर्ज पर रखी गर्भ गुंजन तोप अपने विशाल आकार और मारकक्षमता से शत्रुओं के छक्के छुड़ाने का कार्य करती थी। आज भी यह तोप यहां रखी हुई है लेकिन वर्तमान में यह सिर्फ प्रदर्शन की वस्तु बनकर रह गई है। कहा जाता है जब यह तोप चलती थी तब इसकी भयावह गर्जना से उदर में झंकार हो जाती थी। इसीलिए इसका नाम गर्भगुंजन रखा गया। सोलहवीं सदी में यह तोप कई मर्तबा गूंजी थी।

तालाब

इस किले में पानी के तीन तालाब शामिल हैं जो कभी नहीं सूखते। इन तालाबों का निर्माण इंजीनियरिंग (अभियांत्रिकी) के परिष्कृत और उन्नत विधि का प्रमुख उदाहरण है जिनका प्रयोग उन दिनों में हुआ था। इन जलाशयों में वर्षा का जल सिंचित रखा जाता था और संकटकाल होने पर आम निवासियों की जरूरत के लिए पानी का इस्तेमाल किया जाता था। जलाशयों का आधार चट्टानी होने के कारण पानी सालभर यहां एकत्र रहता था।

खम्भों की छतरी

कोटा जाने वाले मार्ग पर देवपुरा ग्राम के निकट एक विशाल छतरी बनी हुई है। इस छतरी का निर्माण राव राजा अनिरूद्ध सिंह ने धाबाई देवा के लिए 1683 में किया। तीन मंजिला छतरी में 84 भव्य स्तंभ हैं।