चैत्र नवरात्रि का प्रारंभ आज 02 अप्रैल 2022 शनिवार से शुरू हो गया है और इसका समापन 11 अप्रैल 2022 को होगा। नवरात्रि के नौ दिनों में मां दुर्गा के 9 स्वरुपों मां शैलपुत्री, मां ब्रह्मचारिणी, मां चंद्रघंटा, मां कूष्मांडा, मां स्कंदमाता, मां कात्यायनी, मां कालरात्रि, मां महागौरी और मां सिद्धिदात्री की पूजा की जाती है। नवरात्रि के पहले दिन घटस्थापना करते हैं और मां दुर्गा का आह्वान करते हैं। नवरात्रि के नौ दिनों का व्रत रखा जाता है। नवरात्रि पर lifeberrys आपको राजस्थान के प्रसिद्ध माता के मंदिर के दर्शन करवा रहा है। इन मंदिरों की कई खूबियां हैं। जैसलमेर का तनोट माता मंदिर पर पाकिस्तानियों ने बम गिराए लेकिन एक भी बम नहीं फटा तो उदयपुर के ईडाणा माता मंदिर में माता रानी अग्नि स्नान करती हैं। बीकानेर के करणी माता मंदिर में हर वक्त हजारों की संख्या में चूहे घूमते रहते हैं।
त्रिपुर सुंदरी मंदिर, बांसवाड़ाराजस्थान में बांसवाड़ा से लगभग 14 किलोमीटर दूर तलवाड़ा ग्राम से मात्र 5 किलोमीटर की दूरी पर ऊंची रौल श्रृखलाओं के नीचे सघन हरियाली की गोद में उमराई के छोटे से ग्राम में माताबाढ़ी में प्रतिष्ठित है मां त्रिपुरा सुंदरी मंदिर। यह मंदिर माता तुर्तिया के नाम से भी जाना जाता है। देश में त्रिपुर सुंदरी (Tripura Sundari) के और भी मंदिर हैं, लेकिन बांसवाड़ा का पुरामहत्व का मंदिर अपनी निर्माण कला, शिल्प और भव्यता के चलते मरुधरा ही नहीं देशभर में प्रसिद्ध है। त्रिपुरा सुंदरी मंदिर कितना प्राचीन है ? इसका कोई प्रामाणिक आधार तो नहीं है। लेकिन वर्तमान में मंदिर के उत्तरी भाग में सम्राट कनिष्क के समय का एक शिव-लिंग विद्यमान है। लोगों का विश्वास है कि यह स्थान कनिष्क के पूर्व-काल से ही प्रतिष्ठित रहा होगा। कुछ विद्वान् देवी मां की शक्तिपीठ का अस्तित्व यहां तीसरी सदी से पूर्व मानते हैं। क्योंकि पहले यहां ‘गढ़पोली’ नामक ऐतिहासिक नगर था। ‘गढपोली’ का अर्थ है-दुर्गापुर। ऐसा माना जाता है कि गुजरात, मालवा और मारवाड़ के शासक त्रिपुरा सुन्दरी के उपासक थे।
लोक कथाओं के अनुसार मंदिर कुषाण तानाशाह के शासन से भी पहले बनाया गया था। यह मंदिर एक शक्ति पीठ के रूप में प्रसिद्ध है। जो हिंदू, देवी शक्ति या देवी पार्वती की पूजा करते हैं, उनके लिए यह एक पवित्र स्थान है। यहां पांच फीट ऊंची मां भगवती त्रिपुर सुंदरी की मूर्ति अष्ठादश भुजाओं वाली हैं, जिसे चमत्कारी माना जाता है।
मां भगवती त्रिपुर सुंदरी का सात दिनों में हर दिन के हिसाब से अलग-अलग श्रृंगार किया जाता है। सोमवार को सफेद रंग, मंगलवार को लाल रंग, बुधवार को हरा रंग, गुरुवार को पीला रंग, शुक्रवार को केसरिया, शनिवार को नीला रंग और रविवार को पंचरंगी में श्रृंगार किया जाता है। ऐसा भी कहा जाता है कि देवी मां के सिंह, मयूर कमलासिनी होने और तीन रूपों में कुमारिका, मध्यान्ह में सुंदरी यानी यौवना और संध्या में प्रौढ़ रूप में दर्शन देने से इन्हें त्रिपुर सुंदरी कहा जाता है।
दिवाली पर त्रिपुरा सुंदरी मंदिर के पास हर साल विशाल मेले का आयोजन किया जाता है, जिसमें लगभग दो लाख से अधिक तीर्थयात्री शामिल होते हैं। दीवाली वह त्यौहार है जो व्यापक रूप से देवी सती या मां काली की प्रार्थना करने के लिए देशभर में सबसे अधिक उत्साह के साथ मनाया जाता है। मेले में राजस्थान के अलावा गुजरात, मध्यप्रदेश आदि के लोग भी शिरकत करते हैं। मंदिर में अन्य सबसे प्रसिद्ध त्योहारों में दुर्गा पूजा और काली पूजा भी शामिल हैं।
तनोट माता मंदिर, जैसलमेरदेश का हर सैनिक तनोट माता की कृपा और चमत्कार से भली भांति वाकिफ है। माता की कृपा तो सदियों से भक्तों पर है, लेकिन लेकिन 1965 की भारत और पाकिस्तान की जंग में माता ने अपने चमत्कार दिखाए। माता के ऊपर पाकिस्तानियों ने 3000 बम गिराए पर माता के मंदिर पर एक खरोच तक नहीं आई। माता का यह मंदिर जैसलमेर से करीब 130 किलो मीटर दूर भारत-पाकिस्तान बॉर्डर के निकट स्थित है। माता के इस चमत्कारिक मंदिर का निर्माण लगभग 1200 साल पहले हुआ था।
1965 की लड़ाई के बाद माता की प्रसिद्ध मंदिर विदेशों में भी छा गई। पाकिस्तानियों के मंदिर परिसर में गिरे 450 बम फटे ही नहीं। ये बम अब मंदिर परिसर में बने एक संग्रहालय में भक्तों के दर्शन के लिए रखे हुए हैं। 1965 की जंग के बाद इस मंदिर का जिम्मा सीमा सुरक्षा बल को दे दिया गया। माता का चमत्कार एक बार 1971 की लड़ाई में देखने को मिला। पंजाब रेजिमेंट और सीमा सुरक्षा बल की एक कंपनी ने माँ कि कृपा से लोंगेवाला में पाकिस्तान की पूरी टैंक और रेजिमेंट को खाक में मिला दिया। लोंगेवाला विजय के बाद मंदिर परिसर में एक विजय स्तंभ का निर्माण किया गया जहां अब हर वर्ष 16 दिसंबर को सैनिकों की याद में उत्सव मनाया जाता है।
जीण माता मंदिर, सीकरजीण माता राजस्थान के सीकर जिले में स्थित धार्मिक महत्त्व का एक गाँव है। जीण माता का वास्तविक नाम जयंती माता है। घने जंगल से घिरा हुआ मंदिर तीन छोटे पहाड़ों के संगम पर स्थित है। इस मंदिर में संगमरमर का विशाल शिव लिंग और नंदी प्रतिमा मुख्य आकर्षण है। इस मंदिर के बारे में कोई पुख्ता जानकारी उपलब्ध नहीं है। फिर भी पौराणिक मान्यताओं के अनुसार माता का मंदिर 1000 साल पुराना माना जाता है। जबकि कई इतिहासकार आठवीं सदी में जीण माता मंदिर का निर्माण काल मानते हैं।
लोक मान्यताओं के अनुसार जीवण का जन्म चौहान वंश के राजपूत परिवार में हुआ। उनके भाई का नाम हर्ष था जो बहुत खुशी से रहते थे। एक बार जीवण का अपनी भाभी के साथ विवाद हो गया और इसी विवाद के चलते जीवण और हर्ष में नाराजगी हो गयी। इसके बाद जीवण आरावली के 'काजल शिखर' पर पहुंच कर तपस्या करने लगीं। मान्यताओं के अनुसार इसी प्रभाव से वो बाद में देवी रूप में परिवर्तित हुई। जीवण ने यहाँ जयंती माताजी की तपस्या की और जीण माताजी के नाम से पूजी जाने लगी।
लोक मान्यता के अनुसार, एक बार मुगल बादशाह औरंगजेब ने राजस्थान के सीकर में स्थित जीण माता और भैरों के मंदिर को तोड़ने के लिए अपने सैनिकों को भेजा। जीण माता ने अपना चमत्कार दिखाया और वहां पर मधुमक्खियों के एक झुंड ने मुगल सेना पर धावा बोल दिया था। मधुमक्खियों के काटे जाने से बेहाल पूरी सेना घोड़े और मैदान छोड़कर भाग खड़ी हुई। माना जाता है कि उस वक्त बादशाह की हालत बहुत गंभीर हो गई। तब बादशाह ने अपनी गलती मानकर माता को अखंड ज्योति जलाने का वचन दिया, हालांकि इसकी कोई पुष्टि नहीं करता।
ईडाणा माता मंदिर, उदयपुरराजस्थान की लेकसिटी उदयपुर जिला मुख्यालय से 60 किमी दूर कुराबड-बम्बोरा मार्ग पर अरावली की पहाड़ियों के बीच स्थित गांव बम्बोरा में देवी मां की प्रसिद्ध शक्ति पीठ है। यह मंदिर मेवाड़ का प्रमुख इडाणा माताजी धाम के नाम से जाना जाता है। बरगद के पेड़ के नीचे यहां देवी विराजमान हैं। मान्यता है कि प्रसन्न होने पर वह खुद अग्नि स्नान करती हैं। इस दृश्य को देखने वाले हर किसी की मुराद पूरी होती है। ऐसा कहा जाता है कि हजारों साल पुरानी श्री शक्ति पीठ इडाणा माता मंदिर में अग्निस्नान की परम्परा है। यहां कभी भी आग लग जाती है और अपने आप बुझ जाती है।
ऐसा माना जाता है कि इस मंदिर का निर्माण महाभारत काल में हुआ था। कई रहस्यों को अपने अंदर समेटे हुए इस मंदिर में नवरात्र के दौरान भक्तों की भीड़ होती है। खास बात यह है कि इस मंदिर में आग कैसे लगती है और कैसे बुझती है। यह आज तक कोई नहीं जान सका। इस चमत्कारी घटना को लेकर श्रद्धालुओं की मंदिर पर आस्था अटूट है। स्थानीय लोगों का कहना है कि मंदिर में अपने आप आग लगती है। आग से देवी मां के सारे कपड़े और आसपास रखा भोजन भी जल जाता है। माता रानी का यह अग्नि स्नान काफी विशालकाय होता है। कई बार तो नजदीक के बरगद के पेड़ को भी नुकसान पहुंचता है। आपको यह जानकर हैरानी होगी कि आज तक माता रानी की मूर्ति पर इसका कोई असर नहीं हुआ।
ईडाणा माता का अग्नि स्नान देखने के लिए हर साल भारी संख्या में भक्त यहां पहुंचते हैं। अग्नि स्नान की एक झलक पाने के लिए भक्त घंटों इंतजार करते हैं। ऐसा माना जाता है कि इसी समय देवी का आशीर्वाद भक्तों को प्राप्त होता है। पुराने समय में ईडाणा माता को स्थानीय राजा अपनी कुलदेवी के रूप में पूजते हैं।
शिला माता मंदिर, जयपुरशिला देवी मंदिर भारत के राजस्थान राज्य के जयपुर नगर में आमेर महल में स्थित एक मंदिर है। इसकी स्थापना यहां सवाई मानसिंह द्वितीय द्वारा की गयी थी। हिंदू देवी काली को समर्पित यह शिला देवी मंदिर आमेर किले के परिसर में ही स्थित है। सवाई मानसिंह द्वितीय इस मूर्ति को बंगाल से लेकर आए थे। पूरे मंदिर के निर्माण में सफेद संगमरमर का उपयोग किया गया है। इसे देखने के लिए दुनियाभर से लोग आते हैं। शिला देवी की मूर्ति के पास में भगवान गणेश और मीणाओं की कुलदेवी हिंगला की मूर्तियाँ भी स्थापित हैं। कहते हैं कि यहां पहले मीणाओं का राज हुआ करता था। नवरात्रों में यहाँ दो मेले लगते हैं एवं देवी को प्रसन्न करने के लिए पशु बलि दी जाती है।आमेर दुर्ग के महल में जलेब चौक है जिसके दक्षिणी भाग में शिला माता का ऐतिहासिक मंदिर स्थित है। ये शिला माता राजपरिवार की कुल देवी भी मानी जाती हैं।
आमेर में प्रतिष्ठापित शिला देवी की प्रतिमा के टेढ़ी गर्दन को लेकर भी एक किवदंती प्रचलित है। कहा जाता है कि माता राजा मानसिंह से वार्तालाप करती थीं। यहां देवी को नर बलि दी जाती थी, लेकिन एक बार राजा मानसिंह ने माता से वार्तालाप के दौरान नरबलि की जगह पशु बलि देने की बात कही। इससे माता रुष्ट हो गईं। गुस्से से उन्होंने अपनी गर्दन मानसिंह की ओर से दूसरी ओर मोड़ ली। तभी से इस प्रतिमा की गर्दन टेढ़ी है। माता के गर्दन के ऊपर पंचलोकपाल बना हुआ है, जिसमें ब्रह्मा, विष्णु, महेश, गणेश और कार्तिकेय के छोटी-छोटी प्रतिमा बनी हुई है।
कैला देवी मंदिर, करौली राजस्थान के करौली जिला मुख्यालय से दक्षिण दिशा की ओर 24 किलोमीटर की दूरी पर पर्वत श्रृंखलाओं के मध्य त्रिकूट पर्वत पर विराजमान कैला मैया का दरबार चैत्रामास में लघुकुम्भ नजर आता है। उत्तरी-पूर्वी राजस्थान के चम्बल नदी के बीहडों के नजदीक कैला ग्राम में स्थित मां के दरबार में बारह महीने श्रद्धालु दर्शनार्थ आते रहते हैं लेकिन चैत्रा मास में प्रतिवर्ष आयोजित होने वाले वार्षिक मेले में तो जन सैलाब-सा उमड पडता है। यहां के लोग कैला देवी भगवान श्री कृष्ण की बहन मानते हैं। इसको लेकर कई कथाएं भी प्रचलित हैं। कैला देवी मंदिर की एक बात बहुत ही खास है, वो यह कि जो भी व्यक्ति यहां आता है वो कभी खाली हाथ नहीं लौटता। कैला देवी भक्तों की हर मनोकामना को पूरा करती हैं। इसलिए साल भर इस मंदिर में भक्तों की भारी भीड़ लगी रहती है।
शाकंभरी माता मंदिर, सांभरशाकम्भरी को दुर्गा का अवतार माना जाता है। शाकंभरी माता के देशभर में तीन शक्तिपीठ है। माना जाता है कि इनमें से सबसे प्राचीन शक्तिपीठ राजस्थान की राजधानी जयपुर से करीब 100 किलोमीटर दूर सांभर कस्बे में स्थित है। यह मंदिर करीब 2500 साल पुराना बताया जाता है। शाकंभरी माता चौहान वंश की कुलदेवी है, लेकिन माता को अन्य कई धर्म और समाज के लोग भी पूजते हैं। मां शाकंभरी की पौराणिक ग्रंथों में वर्णित कथा के अनुसार, एक समय जब पृथ्वी पर लगातार सौ वर्ष तक वर्षा नहीं हुई, तब अन्न-जल के अभाव में समस्त जीव भूख से व्याकुल होकर मरने लगे। उस समय मुनियों ने मिलकर देवी भगवती की उपासना की।
उपासना से खुश होकर दुर्गा जी ने एक नए रूप में अवतार लिया। उनकी कृपा से वर्षा हुई। इस अवतार में महामाया ने जलवृष्टि से पृथ्वी को हरी साग-सब्जी और फलों से परिपूर्ण कर दिया। शाक पर आधारित तपस्या के कारण शाकंभरी नाम पड़ा। इस तपस्या के बाद यह स्थान हरा-भरा हो गया, लेकिन समृद्धि के साथ ही यहां इस प्राकृतिक संपदा को लेकर झगड़े शुरू हो गए। जब समस्या ने विकट रूप ले लिया। तब मां ने यहां बहुमूल्य संपदा और बेशकीमती खजाने को नमक में बदल दिया। इस तरह से सांभर झील की उत्पत्ति हुई। वर्तमान में करीब 90 वर्ग मील में यहां नमक की झील है। सांभर कस्बे से बेशकीमती खजाना माता के मन्दिर की दूरी करीब 15 किलोमीटर है। सांभर जयपुर से करीब 70 किलोमीटर है। जयपुर में सांगानेर हवाई अड्डा सांभर से करीब 90 किलोमीटर, बस स्टैंड और रेल्वे स्टेशन करीब 70 किलोमीटर है। जयपुर से सड़क मार्ग से पहुंचा जा सकता है। सांभर में रेलवे स्टेशन है जो जयपुर, अजमेर, नागौर आदि शहरों से जुड़ा है।
करणी माता मंदिर, बीकानेरबीकानेर के देशनोक में स्थित करणी माता का मंदिर दुनियाभर में प्रसिद्ध है। इस मंदिर में भक्तों से ज्यादा काले चूहे नजर आते हैं। वैसे यहां चूहों को 'काबा' कहा जाता है और इन काबाओं को बाकायदा दूध, लड्डू और अन्य खाने-पीने की चीजें परोसी जाती हैं। माना जाता है कि इस मंदिर में दर्शन के लिए आने वाले श्रद्धालुओं की हर मुराद पूरी होती है।
करणी माता के मंदिर को 'चूहों वाली माता' या 'चूहों वाला मंदिर' भी कहा जाता है। मंदिर में आने वाले भक्तों को चूहों का जूठा किया हुआ प्रसाद ही मिलता है। हैरान करने वाली बात यह है कि इतने चूहे होने के बाद भी मंदिर में बिल्कुल भी बदबू नहीं है। साथ ही यहां इनसे आज तक कोई भी बीमारी नहीं फैली। चूहों का जूठा प्रसाद खाने से कोई भी भक्त बीमार नहीं हुआ।
चामुंडा माता मंदिर, जोधपुरजोधपुर शहर के संस्थापक राव जोधा ने 1460 में मंदोरे की पुरानी राजधानी से अपनी प्रिय देवी चामुंडा की मूर्ति खरीदी थी। उन्होंने मेहरानगढ़ किले में चामुंडा देवी की मूर्ति को स्थापित किया था और तब से चामुंडा यहाँ देवी बन गयी थी। हिंदुओं का एक प्रमुख तीर्थ स्थल है। माना जाता है कि चामुंडा माता राव जोधा की पसंदीदा देवी थीं, इसलिए उनकी मूर्ति को 1460 में मेहरानगढ़ किले में पूरी धार्मिक प्रक्रिया के साथ स्थापित किया गया था।