धार्मिक ग्रंथों में चार धाम (बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री) यात्रा को शुभ माना गया है। इस यात्रा का आध्यात्मिक महत्व है। जिस व्यक्ति के मन में वैराग्य और धर्म की ज्योति जल रही है उसे यहां जरूर जाना चाहिए। चार धाम की यात्रा करने से व्यक्ति को हर तरह का पापों नष्ट होते हैं और व्यक्ति को मुक्ति मिलती है। इन चारों स्थानों पर दिव्य आत्माओं का निवास है। इन चारों ही धाम को बहुत पवित्र स्थान माना जाता है। उत्तराखंड में जब बद्रीनाथ धाम की यात्रा करते हैं तब यहां स्थित गंगोत्री, यमुनोत्री और केदारनाथ की यात्रा किए बगैर तीर्थ पूरा नहीं माना जाता। ऐसे में आज केदारनाथ तीर्थ के बारे में कुछ खास बाते बताते है...
केदारनाथ धाम का परिचयकेदारनाथ पर्वतराज हिमालय के केदार नामक श्रृंग पर अवस्थित है। केदारनाथ धाम और मंदिर तीन तरफ पहाड़ों से घिरा है। एक तरफ है करीब 22 हजार फुट ऊंचा केदारनाथ, दूसरी तरफ है 21 हजार 600 फुट ऊंचा खर्चकुंड और तीसरी तरफ है 22 हजार 700 फुट ऊंचा भरतकुंड। न सिर्फ तीन पहाड़ बल्कि पांच नदियों का संगम भी है यहां- मंदाकिनी, मधुगंगा, क्षीरगंगा, सरस्वती और स्वर्णगौरी। इन नदियों में से कुछ का अब अस्तित्व नहीं रहा लेकिन अलकनंदा की सहायक मंदाकिनी आज भी मौजूद है। इसी के किनारे है केदारेश्वर धाम। यहां सर्दियों में भारी बर्फ और बारिश में जबरदस्त पानी रहता है। समुद्रतल से 3584 मीटर की ऊंचाई पर स्थित होने के कारण यहां पहुंचना सबसे कठिन है।
शिव के ज्योतिर्लिंगों का दर्शन और पूजन को शुद्ध, पवित्र और अत्यधिक विनम्र होकर किया जाता है अन्यथा भोलेभंडारी का अपमान उनके गणों, उनकी अर्धांगिनी को बर्दाश्त नहीं होता। भगवान राम भी कहते हैं कि शिव का द्रोही मुझे स्वप्न में भी पसंद नहीं। यदि आप केदारनाथ की यात्रा पर जा रहे हैं तो सावधान रहें, पवित्र रहें और अपने पापों की क्षमा के प्रार्थी बनें।
हिन्दू लोग यह भलीभांति नहीं जानते हैं कि सिर्फ शिवलिंग और शालिग्राम की ही पूजा और अर्चना होती है किसी मूर्ति की नहीं। शिवलिंग या शलिग्राम पर ही दूध, दही, जल और पुष्पादि अर्पित किए जाते हैं। राम के काल से पूर्व शिवलिंग और शलिग्राम की पूजा और अर्चना का प्रचलन रहा है। समय बदला और तीर्थों में शालिग्राम की जगह विष्णु और कृष्ण की मूर्तियां स्थापित कर दी गईं। कई शिव मंदिरों में शिवजी की मूर्ति स्थापित कर दी गई।
शिव का रुद्ररूप निवास करता है केदारनाथ मेंकेदारनाथ में शिव का रुद्ररूप निवास करता है, इसलिए इस संपूर्ण क्षेत्र को रुद्रप्रयाग कहते हैं। केदारनाथ का मंदिर उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग जिले के रुद्रप्रयाग नगर में है। यहां भगवान शिव ने रौद्र रूप में अवतार लिया था। देश के बारह ज्योतिर्लिगों में सर्वोच्च है केदारनाथ धाम। मानो स्वर्ग में रहने वाले देवताओं का मृत्युलोक को झांकने का यह झरोखा हो। धार्मिक ग्रंथों अनुसार बारह ज्योतिर्लिंगों में केदार का ज्योतिर्लिंग सबसे ऊंचे स्थान पर है।
यात्रा के दौरान यदि मृत्यु हो जाए तो...शिव पुराण के अनुसार मनुष्य यदी बदरीवन की यात्रा करके नर तथा नारायण और केदारेश्वर शिव के स्वरूप का दर्शन करता है, नि:सन्देह उसे मोक्ष प्राप्त हो जाता है। ऐसा मनुष्य जो केदारनाथ ज्योतिर्लिंग में भक्ति-भावना रखता है और उनके दर्शन के लिए अपने स्थान से प्रस्थान करता है, किन्तु रास्ते में ही उसकी मृत्यु हो जाती है, जिससे वह केदारेश्वर का दर्शन नहीं कर पाता है, तो समझना चाहिए कि निश्चित ही उस मनुष्य की मुक्ति हो गई।
शिव पुराण के अनुसार केदारतीर्थ में पहुंचकर, वहां केदारनाथ ज्योतिर्लिंग का पूजन कर जो मनुष्य वहां का जल पी लेता है, उसका पुनर्जन्म नहीं होता है।
केदारेशस्य भक्ता ये मार्गस्थास्तस्य वै मृता:।
तेऽपि मुक्ता भवन्त्येव नात्र कार्य्या विचारणा।।
तत्वा तत्र प्रतियुक्त: केदारेशं प्रपूज्य च।
तत्रत्यमुदकं पीत्वा पुनर्जन्म न विन्दति।।
स्कंद पुराण में भगवान शंकर, माता पार्वती से कहते हैं, हे प्राणेश्वरी! यह क्षेत्र उतना ही प्राचीन है, जितना कि मैं हूं। मैंने इसी स्थान पर सृष्टि की रचना के लिए ब्रह्मा के रूप में परब्रह्मत्व को प्राप्त किया, तभी से यह स्थान मेरा चिर-परिचित आवास है। यह केदारखंड मेरा चिरनिवास होने के कारण भूस्वर्ग के समान है।
पहली कहानी :पुराण कथा अनुसार हिमालय के इस क्षेत्र में भगवान विष्णु के चौथे अवतार महातपस्वी नर और नारायण ऋषि तपस्या करते थे। इन दोनों ने पवित्र हिमालय के बदरीकाश्रम में बड़ी तपस्या की। उन्होंने पार्थिव शिवलिंग बनाकर श्रद्धा और भक्तिपूर्वक उसमें विराजने के लिए भगवान शिव से प्रार्थना की। उनकी आराधना से प्रसन्न होकर भगवान शंकर प्रकट हुए और उनकी प्रार्थनानुसार ज्योतिर्लिंग के रूप में सदा वास करने का वर प्रदान किया। भगवान शंकर उन दोनों तपस्वियों के अनुरोध को स्वीकारते हुए हिमालय के केदारतीर्थ में ज्योतिर्लिंग के रूप में स्थित हो गए।
बद्री-केदार घाटी में नर और नारायण नामक दो पर्वत आज भी विद्यमान हैं। कहते हैं जिस दिन उक्त पर्वत भूस्खलन के कारण आपस में मिल जाएंगे उस दिन यह दोनों ही तीर्थ लुप्त हो जाएंगे।
दूसरी कहानी :पुराणों में पंचकेदार की कथा का वर्णन मिलता है। कहा जाता है कि महाभारत के युद्ध में विजयी होने के बाद पांडव अपने भाई बंधुओं की हत्या के पाप से मुक्त होना चाहते थे। उनको ऋषियों ने इस पापमुक्ति के लिए भगवान शंकर की शरण में जाने का सुझाव दिया। पांडवों ने देवाधिदेव महादेव के दर्शन के लिए काशी के लिए प्रस्थान किया। जब वे काशी पहुंचे तो भगवन वहां नहीं मिले। तब साधुजनों के कहने पर पांडवों ने उनकी खोज के लिए हिमालय के बद्री क्षेत्र के लिए प्रस्थान किया। भगवान शंकर पांडवों को दर्शन नहीं देना चाहते थे, इसलिए वे वहां से भी अंतरध्यान हो कर केदार में जा बसे। पांडवों को जब यह पता चला तो वे भी उनके पीछे पीछे केदार पर्वत पर पहुंच गए।
भगवान शंकर ने पांडवों को आता देख बैल का रूप धारण कर लिया और वे अन्य पशुओं में जा मिले। पांडव भी धुन के पक्के थे उनको बात समझ में आ गई कि भगवान हमको दर्शन नहीं देना चाहते तब उन्होंने केदार क्षेत्र में भगवान की घेराबंधी शुरू कर दी। भीम ने अपना विशाल रूप धारण कर दोनों पहाडों पर अपने पैर फैला दिए। कहते हैं कि अन्य सब गाय-बैल तो उनके पैरों के नीचे से निकल गए लेकिन शंकरजी रूपी बैल पैर के नीचे से निकलने को तैयार नहीं हुए। वे वहां अड़ गए तब भीम ने तक्षण ही उनकी पीठ को पकड़ना चाहा लेकिन भोलेनाथ विशालरूप धारण कर धरती में समाने लगे। तब भीम ने बलपूर्वक बैल की त्रिकोणात्मक पीठ का भाग पकड़ कस कर पकड़ लिया।
भगवान शंकर पांडवों की भक्ति, दृढ़ संकल्प देखकर प्रसन्न हो गए। उन्होंने तत्काल दर्शन देकर पांडवों को पापमुक्त कर दिया। उसी समय से भगवान शंकर बैल की पीठ की आकृति-पिंड के रूप में श्री केदारनाथ में पूजे जाते हैं। भगवान शंकर बैल की पीठ की आकृति-पिंड के रूप में केदारनाथ में पूजे जाते हैं। ऐसा माना जाता है कि जब भगवान शंकर बैल के रूप में अन्तर्धान हुए, तो उनके धड़ से ऊपर का भाग कल्पेश्वर में जटाओं के रूप में प्रतिष्ठित हैं। शिव की भुजाएं तुंगनाथ में, मुख रुद्रनाथ में, नाभि मदमदेश्वर में और केदार में बैल के धड़ के रूप में, इसलिए इन चार स्थानों सहित केदारनाथ को पंचकेदार भी कहा जाता है।
मंदिर के कपाट खुलने का समयदीपावली महापर्व के दूसरे दिन (पड़वा) के दिन शीत ऋतु में मंदिर के द्वार बंद कर दिए जाते हैं। 6 माह तक दीपक जलता रहता है। पुरोहित ससम्मान पट बंद कर भगवान के विग्रह एवं दंडी को 6 माह तक पहाड़ के नीचे ऊखीमठ में ले जाते हैं। 6 माह बाद अप्रैल और मई माह के बीच केदारनाथ के कपाट खुलते हैं तब उत्तराखंड की यात्रा आरंभ होती है। 6 महीने मंदिर और उसके आसपास कोई नहीं रहता है, लेकिन आश्चर्य की 6 महीने तक दीपक भी जलता रहता और निरंतर पूजा भी होती रहती है। कपाट खुलने के बाद यह भी आश्चर्य का विषय है कि वैसी ही साफ-सफाई मिलती है जैसे छोड़कर गए थे।