अजमेर का मुख्य आकर्षण बनता हैं अढ़ाई दिन का झोपड़ा, जानें इससे जुड़ी प्रमुख जानकारी

राजस्थान के अजमेर को पर्यटन के लिहाज से एक बेहतरीन जगह माना जाता हैं जो दुनियाभर में मोइनुद्दीन चिश्ती की मजार के लिए जाना जाता हैं। इसी के साथ कई पर्यटन स्थल हैं जो अजमेर का आकर्षण बनते हैं, जिसमें से एक हैं अढ़ाई दिन का झोपड़ा। कथित तौर पर इस इंडो-इस्लामिक आर्किटेक्चर साइट का निर्माण ढाई दिनों में किया गया था और इसी वजह से इसका नाम अढाई दिन का झोपड़ा पड़ा है। असल में यह कोई झोंपड़ा नहीं बल्कि एक मस्जिद है, जो सैकड़ों साल पुरानी है। यह भारत की सबसे पुरानी मस्जिदों में से एक और अजमेर का सबसे पुराना स्मारक है। आज इस कड़ी में हम आपको इसके इतिहास और वास्तुकला से जुड़ी प्रमुख जानकारी देने जा रहे हैं। आइये जानते हैं...

अढ़ाई दिन के झोपड़े का इतिहास

अढाई दिन का एक मस्जिद है जिसे मोहम्मद गोरी के आदेश से ढाई दिनों के भीतर बनाया गया है। मोहम्मद गोरी ने इस मस्जिद को 60 घंटों के भीतर बनाने का आदेश दिया और श्रमिकों ने दिन-रात काम करके केवल एक स्क्रीन की दीवार का निर्माण करने में सक्षम थे ताकि सुल्तान अपनी प्रार्थना की पेशकश कर सके। चौहान वंश के अंतर्गत अढाई दिन का झोंपड़ा विग्रहराज चतुर्थ द्वारा निर्मित एक संस्कृत महाविद्यालय था, जिसे विसलदेव के नाम से भी जाना जाता था, जो शाकंभरी चाह्मण या चौहान वंश के थे। इस महाविद्यालय का निर्माण चौकोर आकार में किया गया था और इसके प्रत्येक कोने पर एक गुंबद के आकार का मंडप बनाया गया था। यहां एक मंदिर भी था जो ज्ञान की देवी “देवी सरस्वती ” को समर्पित था। इमारत के निर्माण में हिंदू और जैन वास्तुकला का इस्तेमाल किया गया था। कुछ इतिहासकारों का कहना है कि मस्जिद का निर्माण कुछ पुराने और परित्यक्त हिंदू मंदिरों को तोड़ कर उनकी सामग्रियों द्वारा किया गया था। वहीँ कई लोगों का कहना है कि यह जैनियों का संस्कृत कॉलेज था।

स्थानीय लोगों का कहना है तराइन की दूसरी लड़ाई में मोहम्मद गोरी द्वारा पृथ्वी राज चौहान III की हार के बाद मस्जिद का निर्माण किया गया था। पृथ्वी राज चौहान III को हराने के बाद, एक बार मोहम्मद गोरी अजमेर से गुजर रहा था, यहां उसने कई हिंदू मंदिरों को देखा जिसके बाद उसें कुतुबुद्दीन ऐबक को मस्जिद बनाने का आदेश दिया ताकि वह यहां नमाज़ अदा कर सके। उसने यह भी आदेश दिया कि मस्जिद को ढाई दिनों के भीतर बनाया जाना है। श्रमिकों ने कड़ी मेहनत की और एक स्क्रीन वॉल का निर्माण करने में सक्षम थे जहां सुल्तान नमाज पढ़ सकते थे। एक शिलालेख के अनुसार इस मस्जिद का निर्माण 1199 में पूरी हुई। कुतुबुद्दीन ऐबक के उत्तराधिकारी इल्तुमिश ने मेहराब और उस पर शिलालेखों के साथ एक दीवार का निर्माण किया।

नाम के पीछे का इतिहास

अढ़ाई दिन का झोपड़ा नाम की लंबी कहानी है। माना जाता है कि तब मोहम्मद गोरी पृथ्वीराज चौहान को हराने के बाद अजमेर से गुजर रहा था। इसी दौरान उसे वास्तु के लिहाज से बेहद उम्दा हिंदू धर्मस्थल नजर आए। गोरी ने अपने सेनापति कुदुबुद्दीन ऐबक को आदेश दिया कि इनमें से सबसे सुंदर स्थल पर मस्जिद बना दी जाए। गोरी ने इसके लिए 60 घंटों यानी ढाई दिन का वक्त दिया। गोरी के दौरान हेरात के वास्तुविद Abu Bakr ने इसका डिजाइन तैयार किया था। जिसपर हिंदू ही कामगारों ने 60 घंटों तक लगातार बिना रुके काम किया और मस्जिद तैयार कर दी। अब ढाई दिन में पूरी इमारत तोड़कर खड़ी करना आसान तो नहीं था इसलिए मस्जिद बनाने के काम में लगे कारीगरों ने उसमें थोड़े बदलाव कर दिए ताकि वहां नमाज पढ़ी जा सके। मस्जिद के मुख्य मेहराब पर उकेरे साल से पता चलता है कि ये मस्जिद अप्रैल 1199 ईसवीं में बन चुकी थी। इस लिहाज से ये देश की सबसे पुरानी मस्जिदों में से है।

मस्जिद की वास्तुकला


मस्जिद भारत-इस्लामी वास्तुकला के प्रारंभिक उदाहरणों में से एक है। यह हेरत के वास्तुकार बक्र द्वारा डिजाइन किया गया था जो मुहम्मद गोरी के संग था। मस्जिद पूर्ण रूप से हिंदू राजमिस्त्रियों द्वारा बनायीं गयी थीं। इमारत का बाहरी भाग चौकोर आकार का है, जो हर कोने से 259 फीट का हैं। इसके दो प्रवेश द्वार हैं, एक दक्षिण में और एक पूर्व में। प्रार्थना स्थान (असली मस्जिद) पश्चिम में स्थित है, जबकि उत्तर की ओर एक पहाड़ी चट्टान हैं पश्चिम की ओर स्थित असली मस्जिद की इमारत में 10 गुंबद और 124 स्तंभ हैं; पूर्वी हिस्से में 92 स्तंभ हैं; और शेष प्रत्येक कोनो पर 64 स्तंभ हैं। इस प्रकार, पूरे भवन में 344 खंभे हैं। इनमें से केवल 70 स्तंभ अच्छी हालत में हैं। मुख्य मेहराब लगभग 60 फीट ऊंचा है, और इसके बगल में छः छोटे मेहराब खड़े किये गये है। दिन के समय रास्ते के लिए छोटे आयताकार के पैनल हैं, जैसे पहले अरब मस्जिदों में पाए जाते थे।

कैसी थी पहले यह इमारत

राजा विग्रहराज IV के दौरान बनाया गया ये कॉलेज वास्तुकला का अद्भुत उदाहरण था। ये चौकोर था, जिसके हर किनारे पर डोम के आकार की छतरी बनी हुई थी। वैसे इस इमारत के इतिहास के बारे में अलग-अलग जानकारियां हैं। जैसे जैन धर्म को मानने वालों का कहना है कि यहां पर सेठ विक्रमदेव काला ने 660 ईसवीं में जैन उत्सव पंच कल्याणक मनाने के लिए इसे एक जैन तीर्थ की तरह तैयार किया था। ब्रिटिश काल के दौरान Archaeological Survey of India के डायेक्टर जनरल Alexander Cunningham, जो कि पहले ब्रिटिश आर्मी में मुख्य इंजीनियर रह चुके थे, के मुताबिक मस्जिद में लगे मेहराब ध्वस्त किए गए मंदिरों से लिए गए होंगे। वहां ऐसे लगभग 700 मेहराब मिलते हैं, जिनपर हिंदू धर्म की झलक है।

बाद के सालों में अढ़ाई दिन का झोपड़ा मस्जिद लोगों की नजरों से हटी रही। ब्रिटिश काल के ओरिएंटल स्कॉलर जेम्स टॉड ने साल 1891 में मस्जिद का दौर किया। इसी मस्जिद का जिक्र उसकी किताब Annals and Antiquities of Rajasthan में है। जेम्स के मुताबिक ये सबसे प्राचीन इमारत रही होगी। साल 1875 से लेकर अगले एक साल तक इसके आसपास पुरातात्विक जानकारी के लिए खुदाई चली। इस दौरान कई ऐसी चीजें मिलीं, जिसका संबंध संस्कृत और हिंदू धर्मशास्त्र से है। इन्हें अजमेर के म्यूजियम में रखा गया है। फिलहाल इस मस्जिद को इंडो-इस्लामिक वास्तुकला का बेजोड़ नमूना माना जाता है और इसे देखने के लिए देश-विदेश से सैलानी आते हैं।

अढ़ाई दिन का झोंपड़ा घूमने जाने का सबसे अच्छा समय

अजमेर आने का सबसे अच्छा समय अक्टूबर से मार्च जिसमें मानसून और सर्दियों का मौसम शामिल है। अप्रैल और जून के दौरान गर्मी की चिलचिलाती धूप आपको परेशान कर सकती है इस दौरान अजमेर की यात्रा से बचना ही बेहतर विकल्प है। अधिकांश त्यौहार, धार्मिक और सांस्कृतिक दोनों अक्टूबर और नवंबर के दौरान मनाये जाते हैं इसीलिए यह समय अजमेर की यात्रा के लिए सबसे अच्छा समय माना जाता है। अढ़ाई दिन का झोंपड़ा सुबहे 6 बजे से शाम के 6 बजे तक खुला रहता है। अढ़ाई दिन का झोंपड़ा को अन्दर से घूमने के लिए कोई प्रकार का प्रवेश शुल्क नही लिया जाता है।