कोरोना वायरस की वजह से लगा लॉकडाउन आज पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था को डगमगा चुका है। हर जगह से केवल एक ही सवाल उठ रहा है कि आखिर कब तक इस वायरस की वैक्सीन बनकर तैयार हो जाएगी। हालाकि, दुनियाभर में वैक्सीन के असफल ट्रायल खुद इस बात के सबूत है कि इस वायरस की वैक्सीन तैयार करना वैज्ञानिकों के लिए इतना आसान काम नहीं हैं। अब ऐसे में सोचिए कि अगर इस वायरस की वैक्सीन कभी बन कर तैयार ही नहीं हो पाई तो क्या फिर बनने में समय लगा तो क्या होगा? लंदन के इम्पीरियल कॉलेज के प्रोफेसर और ग्लोबल हेल्थ एक्सपर्ट डेविड नबैरो ने सीएनएन के हवाले से इस बारे में विस्तार से जानकारी दी।
डेविड नबैरो ने कहा कि दुनियाभर में कई ऐसे वायरस हैं जिनकी आज तक कोई वैक्सीन नहीं बन सकी है। वैक्सीन को लेकर ये पूर्वानुमान नहीं लगाया जा सकता कि वो कब तक बनेगी और अगर बनेगी भी तो क्या सुरक्षा के सभी परीक्षणों पर खरी उतरेगी। क्सपर्ट का कहना है कि जब तक कोविड-19 (Covid-19) का कोई इलाज सामने नहीं आ जाता या वैज्ञानिक इसकी वैक्सीन (Coronavirus Vaccine) नहीं खोज लेते तब तक हमें इसके साथ जीने का तरीका सीख लेना चाहिए। उन्होंने कहा, 'कोरोना के बाद दुनियाभर में लॉकडाउन की पाबंदियों को धीरे-धीरे हटाना चाहिए।'
ऐसी परिस्थितियों में टेस्टिंग और शारीरिक जांच कुछ समय के लिए हमारे जीवन का अहम हिस्सा बन जाएंगे। हालांकि, इस दौरान कई देशों में तो अचानक सेल्फ आइसोलेशन तक के निर्देश जारी होने लगेंगे। वैक्सीन बनने के बावजूद भी कई तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है। शायद यह महामारी हर साल लोगों के सामने बड़ी मुसीबत बनकर खड़ी रहे और मौत के आंकड़े साल दर साल यूं ही बढ़ते रहें।
वहीं, नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ एलर्जी एंड इंफेक्शियस डिसीज़ के डायरेक्टर डॉ एंथोनी फॉसी समेत दुनियाभर में वैज्ञानिक 12 से 18 महीने में वैक्सीन बनने का दावा कर रहे हैं। नेशनल स्कूल ऑफ ट्रॉपिकल मेडिसिन के डॉ पीटर हॉट्ज़ कहते हैं, 'ऐसा बिल्कुल नहीं है कि कोरोना वायरस की वैक्सीन बन ही नहीं सकती है, लेकिन इससे बनाना किसी बड़ी उपलब्धि से कम नहीं होगा।'
डॉ पीटर हॉट्ज़ का कहना है कि कोरोना वैक्सीन न बनने की स्थिति में हमारे पास 'Plan B' होना भी जरूरी है। यानी अगर वैज्ञानिक कई बरसों तक कोरोना वायरस की वैक्सीन नहीं बना पाते तो इंसानों को इसके साथ ही जीने की आदत डाल लेनी होगी।
'Plan B' / कोरोना महामारी से बचने के लिए सबको संक्रमित कर देना चाहिए! छिड़ी बहस
ऐसी सूरत में वैक्सीन बनने तक 'हर्ड इम्यूनिटी (Herd Immunity)' के कॉन्सेप्ट से लोगों की उम्मीदें बढ़ी हैं। इसी को प्लान बी के तौर पर बताया जा रहा है कि लोगों को खुला छोड़ दें संक्रमण के लिए, इससे 'हर्ड इम्यूनिटी' विकसित होगी और आखिरकार महामारी खत्म हो जाएगी। लेकिन इसमें इतना ज्यादा जोखिम है कि दुनिया भर के विशेषज्ञ इसे लेकर बंट चुके हैं। ऐसे में हम आपको बताते है कि आखिर क्या है 'हर्ड इम्यूनिटी (Herd Immunity)'?
जब बहुत सारे लोग किसी संक्रामक बीमारी के प्रति इम्यून (Immune) हो जाते हैं यानी उनमें उसके प्रति रोग प्रतिरोधक क्षमता विकसित हो जाती है तो वह बीमारी बाकी बचे असंक्रमित लोगों को अपनी चपेट में नहीं ले पाती है क्योंकि पूरा समूह ही इम्यून हो चुका होता है। इसी को हर्ड इम्यूनिटी कहते हैं।
पीडियाट्रिशियन एंड इंफेक्शियस डिसीज के स्पेशलिस्ट पॉल ऑफिट का कहना है कि एचआईवी/एड्स का फ्रेमवर्क बताता है कि एक गंभीर बीमारी के रहते हुए भी इंसान जी सकता है। HIV में प्रोफिलैक्सिस या प्रैप जैसी रोजाना ली जाने वाली निवारक गोलियां पहले भी इंसान को बीमारी के जोखिमों से बचा चुकी हैं। वैज्ञानिकों ने अब तक एंटी इबोला ड्रग रेमडेसिवीर, ब्लड प्लाज्मा ट्रीटमेंट से लेकर हाइड्रोक्लोरोक्वीन पर प्रयोग किए हैं। नॉटिंघम यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर कीथ नील का कहना है कि कोविड-19 के लिए अब तक जिन भी दवाइयों पर परीक्षण हुआ है, वे सभी बेस्ट हैं।
प्रोफेसर कीथ के मुताबिक, इस बीमारी को खत्म करने के लिए हमें बड़े पैमाने पर रैंडम कंट्रोल ट्रायल करने होंगे। अब तक हुए शोध के बारे में उनका कहना है कि जमीनी हकीकत जाने बिना इस तरह के रिसर्च की बुनियाद पर कामयाबी हासिल नहीं की जा सकती है।
कोविड-19 (Covid-19) में काम आने वाली ड्रग्स का असर एक हफ्ते के अंदर दिख जाना चाहिए। यदि कोई दवा ICU में भर्ती मरीज का औसत समय कम कर देगी तो निश्चित ही अस्पताल में रोगियों की भीड़ इकट्ठा नहीं होगी। दूसरा, रेमडेसिवीर जैसी दवाइयों का प्रोडक्शन भी इतना कम है कि उसे तेजी से पूरी दुनिया में उपलब्ध कराना भी मुश्किल काम है।