लम्बे समय से विवादों में घिरी रही कंगना रनौत (Kangana Ranaut) की फिल्म मणिकर्णिका: द क्वीन ऑफ झांसी (Manikarnika The Queen Of Jhansi Movie Review) का प्रदर्शन आज हो गया। इस फिल्म को लेकर दर्शकों में उत्सुकता थी, इसका अंदाजा सिनेमाघरों में उमड़ी भीड़ को देखकर होता है। फिल्म झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की वीरता को पेश करती है, जिनकी कहानियाँ बचपन से सुनते आए हैं। मुझे ‘मणिकर्णिका’ को देखते हुए वर्ष 1953 में प्रदर्शित हुई निर्माता निर्देशक अभिनेता सोहराब मोदी की फिल्म ‘झांसी की रानी’ का ख्याल आ रहा था। मिनर्वा मूवीटोन बैनर तले बनी यह पहली भारतीय फिल्म थी, जिसे टैक्नीकलर में बनाया गया था। इसी फिल्म से भारत में रंगीन फिल्मों का दौर शुरू हुआ था। ‘लक्ष्मीबाई’ की भूमिका सोहराब मोदी की पत्नी मेहताब ने निभाई थी।
कंगना रनौत Kangana Ranaut) की मणिकर्णिका (Manikarnika)को भव्य स्तर और महंगे बजट में बनाया गया है। फिल्म को ऐतिहासिक परिवेश देने में पूरी ईमानदारी बरती गई है। लक्ष्मीबाई के रूप में कंगना रनौत का अभिनय प्रभावी है। पूरी फिल्म उन्होंने अपने सशक्त कंधों पर उठा रखी है। उनकी मेहनत साफ झलकती है। अभिनय में उन्हें दूसरे सितारों ने भी उम्दा सहयोग किया है। अरसे बाद परदे पर डैनी और सुरेश ओबेराय को देखना सुखद अहसास दिलाता है। फिल्म का तकनीकी पक्ष सशक्त है।
फिल्म की शुरूआत उम्दा है। फिल्म के पहले दृश्य में कंगना रनौत को मणिकर्णिका के रूप में शेर का शिकार करते हुए दिखाया गया है। इसके बाद मणिकर्णिका की कुछ खूबियों को दिखाया गया है, जिनकी बदौलत कंगना रनौत पूरी तरह से मणिकर्णिका के रूप में दर्शकों के जेहन में बस जाती हैं। इसके बाद फिल्म अपने मूल कथानक पर आती है जहाँ उसकी शादी झांसी के शासक गंगाधर राव के साथ होती है। झांसी में आकर उसका नाम लक्ष्मीबाई हो जाता है। अंग्रेजी हुकूमत से लोहा लेते हुए उसके पति की मौत हो जाती है। विधवा होकर सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ वह झांसी की गद्दी पर बैठती है और अंग्रेजों से संघर्ष करती है।
फिल्म के कथानक का दर्शकों को पहले से पूरा आभास होता है इसके लिए जरूरी था इसका प्रस्तुतीकरण बेहतरीन हो। यहीं पर यह फिल्म मात खा जाती है। बेहतरीन शुरूआत के बाद फिल्म मध्य में आकर लडख़ड़ा जाती है। इस लडख़ड़ाहट में उसका सहयोग करते हैं लम्बे दृश्य और कहीं-कहीं उसकी धीमी गति। ऐतिहासिक फिल्मों की सफलता में सबसे अहम् भूमिका उसके संवादों और दृश्यों के संरचना की होती है। मणिकर्णिका में भी ऐसे संवाद हैं जो तालियाँ बजवाने में सफल हैं लेकिन उनकी गिनती कम है। इसके अतिरिक्त फिल्म में के.विजयेन्द्र प्रसाद का कथानक कमजोर पड़ जाता है।
उन्होंने क्या सोचकर लक्ष्मीबाई के बस्ती के दृश्यों को लिखा है समझ से बाहर है। रानी होकर बस्ती में नाचना, गाना और गाय के बछेड़े को बचाना ऐसे दृश्य हैं जिनकी कोई आवश्यकता नहीं थी। इन्हीं दृश्यों के चलते फिल्म कमजोर हो जाती है। मध्यान्तर से पूर्व जहाँ फिल्म में कसावट नजर आती है, वहीं मध्यान्तर के बाद वह ढीली पड़ जाती है। लेकिन क्लाइमैक्स के 30 मिनट पूर्व फिल्म फिर से अपनी गति में आती है। इस समय में फिल्माये गए युद्ध के दृश्य शानदार हैं। विशेष रूप से जब रानी ग्वालियर पर कब्जा करती है। यह प्रसंग बेहतरीन तरीके से फिल्माया गया है।
फिल्म का कथानक पूरी तरह से कंगना रनौत के इर्द गिर्द बुना गया है। फिल्म के हर फ्रेम में वे ही नजर आती हैं। दूसरे सितारों को बहुत कम मौका मिला है। जबकि फिल्म में बेहतरीन सितारों—डैनी, अतुल कुलकर्णी, जीशान अय्यूब, अंकिता लोखंडे, सुरेश ओबेराय, कुलभूषण खरबंदा—की फौज है लेकिन उन्हें ज्यादा तवज्जो नहीं मिली है। फिल्म का संगीत औसत है। गीतों के बोल अच्छे हैं। कुछ गीत ऐसे हैं जिन्हें सम्पादन की टेबल हटा दिया जाना चाहिए था। विजयेन्द्र प्रसाद को दमदार संवाद लिखने चाहिए थे, जो इस फिल्म के लिए अत्यावश्यक थे। फिल्म की शुरूआत अमिताभ बच्चन की आवाज में बोले गए संवादों से होती है जो रानी लक्ष्मीबाई के बारे में दर्शकों को बताते हैं। जितनी शुरूआत शानदार है, उतना ही अन्त, लेकिन मध्य में लडख़ड़ाती है यह फिल्म जो इसे व्यासायिक मोर्चे पर कमजोर करेगी।