कहते है मनुष्य योनी बड़ी मुश्किल से मिलती है, 84 लाख योनियों को भोगने के बाद मनुष्य जीवन मिलता है, यह जीवन सभी योनियों में सबसे उत्तम माना जाता है। देवता भी मनुष्य जीवन पाने के लिए तरसते है, ऐसे में आत्महत्या कर इंसान इस ज़िन्दगी को ख़त्म कर लेता है। शास्त्रों में आत्महत्या एक पाप माना गया है। आत्महत्या करना कानूनन अपराध भी है।
यूँ तो हिन्दू धर्म में लिखा है की आत्महत्या के बाद का जीवन पहले के जीवन की तुलना में ज्यादा कष्टकारी होता है, क्योकि हमारा सिर्फ शरीर मरता है, शरीर के मरने से हमें शारीरिक दुखों से मुक्ति मिल सकती है लेकिन मानसिक तौर पर शांति नहीं मिलती।
आत्महत्या करके लोग प्रकृति के विपरीत कदम उठाते है। इंसान की मृत्यु होना स्वाभाविक प्रक्रिया है लेकिन उसका एक निर्धारित समय होता है बस जाने का तरीका अलग अलग होता है लेकिन जो लोग इस नियम के विपरीत जाकर समय से पहले ही अपनी मृत्यु निर्धारित करते है उन्हें भला मुक्ति कैसे मिल सकती है।
आत्महत्या के बाद आत्मा अधर में लटक जाती है ना तो वो स्वर्ग या नरक जा पाती है और ना ही वह जीवन में वापिस आ पाती है। बस भटकती रहती है ऐसे में वह अतृप्त होती जाती है वह तब तक अपने स्थान पर नहीं जाती जब तक उसका समय नहीं हो जाता है। मानव जीवन के कुल सात चरण होते है जिन्हें पूरा करने पर स्वतः ही इंसान की मृत्यु हो जाती है ऐसे में प्रक्रिया पूरी होने से पहले ही मृत्यु हो जाने से वो प्रक्रिया पूरी नहीं हो पाती और जब तक वह पूरी नहीं होती, आत्मा यूँ ही अकेली भटकती रहती है और जीवन में वापिस जाने की लालसा और अपनी ख्वाशिओं के अधुरेपन के दुखों से कष्टों में रहती है और अपने परिजनों को भी परेशान करती है।