Janmashtami 2019: श्रीमद्भगवदगीता का ज्ञान कराता है आत्मसात, जानें पहले छ: अध्यायों का सारांश

हर साल भाद्रपद कृष्ण अष्टमी को श्रीकृष्ण जन्माष्टमी का महोत्सव पूरे देशभर बड़े जोश और हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता हैं। सभी मंदिरों में भगवान कृष्ण का जन्मोत्सव मनाते हुए पूजा-अर्चना की जाती हैं। सभी चाहते हैं कि श्रीकृष्ण के पदचिन्हों का अनुसरण किया जाए। इसलिए आज हम जन्माष्टमी के इस खास मौके पर आपके लिए श्रीमद्भगवदगीता के प्रथम छ: अध्यायों का सारांश बताने जा रहें हैं जो कि आपको आत्मसात करवाते हैं और अपनी पहचान बताते हैं। तो आइये जानते हैं इस जानकारी के बारे में।

प्रथम अध्याय
पहले अध्याय का नाम अर्जुनविषादयोग है। जब शौर्य और धैर्य, साहस और बल इन चारों गुणों से युक्त अर्जुन पर क्षमा और प्रज्ञा यानि बुद्घि का प्रभाव बढ़ा और उन्होंने युद्घ भूमि में हथियार डाल दिए तब उनके क्षात्रधर्म का स्थान कार्पण्य ने लिया। तब कृष्ण ने तर्क से, बुद्धि से, ज्ञान से, कर्म की चर्चा से, विश्व के स्वभाव से, उसमें जीवन की स्थिति से, दोनों के नियामक अव्यय पुरुष के परिचय से और उस सर्वोपरि परम सत्तावान ब्रह्म के साक्षात दर्शन से अर्जुन को वापस प्रेरित किया। इस अध्याय में इसी तत्वचर्चा परिचय दिया गया।

दूसरा अध्याय
इस अध्याय का नाम सांख्ययोग है। इसमें जीवन की दो प्राचीन संमानित परंपराओं का तर्कों द्वारा वर्णन आया है। अर्जुन को उस कृपण स्थिति में रोते देखकर कृष्ण ने उसका ध्यान दिलाया है कि इस प्रकार का क्लैव्य और हृदय की क्षुद्र दुर्बलता अर्जुन जैसे वीर के लिए उचित नहीं। उन्होंने बताया कि प्रज्ञादर्शन काल, कर्म और स्वभाव से होनेवाले संसार की सब घटनाओं और स्थितियों को अनिवार्य रूप से स्वीकार करता है। जीना और मरना, जन्म लेना और बढ़ना, विषयों का आना और जाना, सुख और दुख का अनुभव, ये तो संसार में होते ही हैं।

तीसरा अध्याय
इस अध्याय में अर्जुन ने इस विषय में और गहरा उतरने के लिए स्पष्ट प्रश्न किया कि सांख्य और योग इन दोनों मार्गों में आप किसे अच्छा समझते हैं और क्यों नहीं यह निश्चित बतसते कि वे इन दोनों में से किसे अपनायें। इसपर कृष्ण ने स्पष्टता से उत्तर दिया कि लोक में दो निष्ठायें या जीवनदृष्टियां हैं। सांख्यवादियों के लिए ज्ञानयोग है और कर्ममार्गियों के लिए कर्मयोग है। अर्थात् जो साधारण समझ के लोग कर्म में लगे हैं उन्हें उस मार्ग से उखाड़ना उचित नहीं, क्योंकि वे ज्ञानवादी बन नहीं सकते, और यदि उनका कर्म भी छूट गया तो वे दोनों ओर से भटक जायेंगे।

चौथा अध्याय
इस अध्याय में, जिसका नाम ज्ञान-कर्म-संन्यास-योग है, यह बताया गया है कि ज्ञान प्राप्त करके कर्म करते हुए भी कर्मसंन्यास का फल किस तरह से प्राप्त किया जा सकता है। यहीं गीता का वह प्रसिद्ध वचन है कि जब जब धर्म की हानि होती है तब तब भगवान का अवतार होता है।

पांचवां अध्याय
पांचवा अध्याय कर्मसंन्यास योग नामक युक्तियां फिर से और दृढ़ रूप में कहीं गई हैं। इसमें कर्म के साथ जो मन का संबंध है, उसके संस्कार पर या उसे विशुद्ध करने पर विशेष ध्यान दिलाया गया है। यह भी कहा गया है कि एक स्थान पर पहुँचकर सांख्य और योग में कोई भेद नहीं रह जाता है। किसी एक मार्ग पर ठीक प्रकार से चले तो समान फल प्राप्त होता है। जीवन के जितने कर्म हैं, सबको समर्पण कर देने से व्यक्ति एकदम शांति के ध्रुव बिंदु पर पहुँच जाता है और जल में खिले कमल के समान कर्म रूपी जल से लिप्त नहीं होता।

छठा अध्याय
छठा अध्याय आत्मसंयम योग है जिसका विषय नाम से ही पता चलता है कि जितने विषय हैं उन सबमें इंद्रियों का संयम श्रेष्ठ है। सुख में और दुख में मन की समान स्थिति, इसे ही योग कहते हैं।