गया में अपने पूर्वजो का पिण्डदान करने मात्र से होता है कुल का उद्धार

गया तीर्थ के बारे में गरूड़ पुराण में कहा गया है ‘गयाश्राद्धात् प्रमुच्यन्त पितरो भवसागरात्। गदाधरानुग्रहेण ते यान्ति परामां गतिम्।। यानी गया श्राद्ध करने मात्र से पितर यानी परिवार में जिनकी मृत्यु हो चुकी है वह संसार सागर से मुक्त होकर गदाधर यानी भगवान विष्णु की कृपा से उत्तम लोक में जाते हैं।

मनुष्य जीवन चक्र में जन्म से शुरू हुई यात्रा मृत्यु और फिर पिंडदान पर आकर रुकती है। हिन्दू धर्म से जुड़े व्यक्ति काशी में प्राण त्यागकर मोक्ष को प्राप्त करना चाहते हैं, वहीं हर कोई ये भी चाहता है कि मृत्यु के पश्चात उसकी आत्मा का पिंडदान गया में हो।

बिहार की राजधानी पटना से करीब 104 किलोमीटर की दूरी पर बसा है गया जिला। धार्मिक दृष्टि से गया न सिर्फ हिन्दूओं के लिए बल्कि बौद्ध धर्म मानने वालों के लिए भी आदरणीय है। बौद्ध धर्म के अनुयायी इसे महात्मा बुद्ध का ज्ञान क्षेत्र मानते हैं जबकि हिन्दू गया को मुक्तिक्षेत्र और मोक्ष प्राप्ति का स्थान मानते हैं।

गया तीर्थ के बारे में गरूड़ पुराण यह भी कहता है कि यहां पिण्डदान करने मात्र से व्यक्ति की सात पीढ़ी और एक सौ कुल का उद्धार हो जाता है। गया तीर्थ के महत्व को भगवान राम ने भी स्वीकार किया है।

हिंदू मान्यताओं और वैदिक परम्परा के अनुसार पुत्र का पुत्रत्व तभी सार्थक होता है, जब वह अपने जीवित माता-पिता की सेवा करें और उनके मरणोपरांत उनकी बरसी पर तथा पितृपक्ष में उनका विधिवत श्राद्ध करें। विद्वानों के मुताबिक किसी वस्तु के गोलाकर रूप को पिंड कहा जाता है। प्रतीकात्मक रूप में शरीर को भी पिंड कहा जाता है, जो मुख्यतय जौ या चावल के आटे को गूंथकर बनाई गई गोलाकृत्ति से बनता है।

श्राद्ध की मुख्य विधि में मुख्य रूप से तीन कार्य होते हैं, पिंडदान, तर्पण और ब्राह्मण भोज। दक्षिणाविमुख होकर आचमन कर अपने जनेऊ को दाएं कंधे पर रखकर चावल, गाय का दूध, घी, शक्कर एवं शहद को मिलाकर बने पिंडों को श्रद्धा भाव के साथ अपने पितरों को अर्पित करना पिंडदान कहलाता है।

पितृ की श्रेणी में मृत पूर्वजों, माता, पिता, दादा, दादी, नाना, नानीसहित सभी पूर्वज शामिल होते हैं। व्यापक दृष्टि से मृत गुरू और आचार्य भी पितृ की श्रेणी में आते हैं।

पौराणिक कथा

#एक पौराणिक कथा के अनुसार वनवास काल के दौरान भगवान राम अपने भ्राता लक्ष्मण के साथ पिता का श्राद्ध करने गया धाम पहुंचते हैं। वे दोनों जरूरी सामान लेने जाते हैं और माता सीता उनकी प्रतीक्षा करती हैं।

#दिन बीतने लगता है और श्रीराम और लक्ष्मण के आने की कोई आहट नहीं होती। माता सीता की व्याकुलता बढ़ती जाती है कि कहीं श्राद्ध का उत्तम समय बीत ना जाए। माता सीता इंतजार में ही होती हैं कि तभी अपराहन में दशरथ की आत्मा उनके पास आकर अपने पिंडदान की मांग करती है।

#सीता जी फल्गू नदी के किनारे बैठकर वहां लगे केतकी के फूलों और गाय को साक्षी मानकर बालू के पिंड बनाकर दशरथ के निमित्त पिंडदान करती हैं।

#थोड़ी देर बाद जब भगवान राम और लक्ष्मण सामग्री लेकर लौटे, तब सीता जी ने उन्हें बताया कि वे महाराज दशरथ का पिंडदान कर चुकी हैं। श्रीराम ने उनसे कहा कि बिना सामग्री के पिंडदान संभव नहीं है, इसलिए उन्होंने सीता जी से प्रमाण देने के लिए कहा।

#सीता जी ने केतकी के फूल, गाय और बालू मिट्टी से गवाही देने के लिए कहा, लेकिन वहां लगे वटवृक्ष के अलावा किसी ने भी सीताजी के पक्ष में गवाही नहीं दी। फिर सीता जी ने महाराज दशरथ की आत्मा का ध्यान कर उन्हीं से गवाही देने की प्रार्थना की।

#सीता जी के आग्रह पर स्वयं महाराज दशरथ की आत्मा प्रकट हुई और उन्होंने कहा कि समय नष्ट ना हो जाए इसलिए सीता जी ने उनका पिंडदान किया है। अपने पिता की गवाही पाकर भगवान राम आश्वस्त हुए।

#लेकिन फल्गू नदी और केतकी के फूलों के झूठ बोलने पर सीता जी बहुत क्रोधित हुईं और उन्हें श्राप दिया। सीता जी ने फल्गू नदी को श्राप दिया "जा, तू केवल नाम की ही नदी रहेगी, तेरा सारा पानी सूख जाएगा"। तब से लेकर आज तक फल्गू नदी का पानी सूखा हुआ है।

#फल्गू नदी के तट पर मौजूद सीताकुंड का पानी सूखा है इसलिए आज भी यहां बालू मिट्टी या रेत से ही पिंडदान किया जाता है।

#गाय को उन्होंने श्राप दिया "पूज्य होकर भी तू लोगों का झूठा खाएगी"। वहीं केतकी के फूलों को श्राप मिला कि पूजा में उनका उपयोग कभी नहीं किया जाएगा।

#वट वृक्ष ने सत्य बोला था, इसलिए सीता जी ने उसे दीर्घायु का वरदान दिया और कहा कि हर सुहागन स्त्री उसका स्मरण कर अपने पति की दीर्घायु की कामना करेगी।
यही कारण है कि गाय को आज भी जूठा खाना पडता है, केतकी के फूल को पूजा पाठ में वर्जित रखा गया है और फल्गू नदी के तट पर सीताकुंड में पानी के अभाव में आज भी सिर्फ बालू या रेत से पिंडदान किया जाता है।