पैर छूना एक परम्परा है पिछडापन नहीं

नई व पुरानी पीढी की सोच को लेकर खासतौर पर मतभेद है, उनमें से एक बात पैर छूने के संबंध में भी है। पुरानी पीढी के लोगों की सोच होती है कि बडो व आदजनों के पैर छूने चाहिए, जबकि नई पीढी को पैर छूने की समूची अवधारणा ही गुजरे जमाने की पिछडी सोच लगती है। सवाल है सही कौन है?

प्राचीन परंपरा
हमारे यहां पुराने समय से ही यह परंपरा चली आ रही है कि जब भी हम भी हम अपने से बडे किसी व्यक्ति से मिलते हैं तो उनके पैर छूते हैं। इस परंपरा को मान-सम्मान की नजर से देखा जाता है। आज की युवा पीढी को कई मामलों में इससे भी परहेज है। नई पीढी के युवा कई बार घर परिवार और रिश्तेदारों के सामाजिक दवाब में अपने से बडो के पैर छूने की परम्परा का निर्वाह तो करते हैं, लेकिन दिल दिमाग से वह इसके लिए तैयार नहीं होते। इसलिए कई बार पैर छूने के नाम पर बस सामने कमर तक झुकते भर हैं। कुछ थोडा और कंधे तक झुककर इस तरह के हावभाव दर्शाते हैं, मानों पैर छू रहें हो, लेकिन पैर छूते नहीं।

जब कोई आपके पैर छूए
पैर छूने वाले व्यक्ति को हमेशा दिल से आशीवार्द देना चाहिए। क्योंकि इसी से पैर छूने और छुआने वाले को सकारात्मक परिणाम मिलते हैं। इससे हमारे पुण्यों में बढोतरी होती है। आशीर्वाद देने से पैर छूने वाले व्यक्ति की समस्याएं समाप्त हो जाती है, उम्र बढती है और नकारात्मक शक्तियों से उसकी रक्षा होती है।

वैज्ञानिक कारण
यह एक वैज्ञानिक क्रिया भी है, जो कि हमारे शारीरिक, मानसिक और वैचारिक विकास से जुडी होने के साथ साथ इसका अपना एक मनोवैज्ञानिक प्रभाव भी है। वास्तव में जब हम झुककर पैर छूते है तो जाहिर है हम उसके प्रति आदर का भाव रखते हैं, इसी भावना के चलते सकारात्मक ऊर्जा की लहर हमारे शरीर में पहुंचती है। इससे हमें एक विशिष्ट किस्म की ताजगी और प्रफुल्लता मिलती है।
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