आरती को ‘आरात्रिक’ और नीराजन नाम से भी संबोधित करते हैं। पूजन कार्य के पाश्चात अन्त में आरती करने का प्रावधान है। आरती का मुख्य उद्देश्य पूजन विधि में रह जाने वाली त्रुटि की पूर्ति करना है। जो भक्त आरती को दोनों हाथों से करता है वो ही नहीं बल्कि वो भी जो आरती को देखता है, वह भगवान विष्णु के परम पद को प्राप्त करता है। अपने कुटुंब का उद्धार करता है।
विषम संख्यक बत्तियों यथा एक, तीन, पांच, सात से आरती करना श्रेष्ठ माना जाता हैं, यानि बत्तियां विषम संख्यक होनी चाहिए। साधारत: पांच बत्तियां से की जानें वाली आरती ‘पंचदीप आरती’ कहलाती है। बत्तियों के अलावा कर्पूर से भी आरती की जाती है। आरती के समय शंख, घंटा आदि बजाते रहना चाहिए।
आरती उतारते समय सर्वप्रथम भगवान की प्रतिमा के चरणों में दक्षिणावर्त दिशा में बार-बार घुमाएं। दो बार नाभि प्रदेश के पास एक बार मुखमंडल पर से फिर सात बार समस्त अंगों पर आरती घुमानी चाहिये।
प्रथम आरती विषम संख्यक दीपों से दूसरी जलयुक्त शंख से तीसरी आरती स्वच्छ धुले हुए सूखे वस्त्र से तथा चौथी आरती आम या पीपल के पत्तों से करके अंत में साष्टांग दण्डवत प्रणाम करना चाहिये। यही आरती का विधान है।