साध्वी प्रज्ञा ठाकुर का विवादित बयान - यदि मंदिरों के पास कोई गैर‑हिंदू प्रसाद बेचता दिखे तो उसकी जमकर पिटाई करो

भोपाल की पूर्व भाजपा सांसद साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर के हालिया बयानों ने सार्वजनिक बहस जगा दी है। वीएचपी के एक कार्यक्रम में दिए गए अपने संबोधन में उन्होंने श्रद्धालुओं से यह कहकर आह्वान किया कि वे समूह बनाकर मंदिरों के आसपास प्रसाद बेचने वालों की पहचान करें और यदि कोई विक्रेता “गैर‑हिंदू” पाया गया तो उसके खिलाफ सख्ती बरती जाए — एक बयान में उन्होंने कहा कि “यदि कोई गैर‑हिंदू प्रसाद बेचता दिखे तो जितना थाप‑मार सकते हो, मारो, और फिर शासन के हवाले कर दो।”

यह टिप्पणी सामाजिक और राजनीतिक रूप से तीखी प्रतिक्रिया का विषय बनी है, क्योंकि उसमें हिंसा को सामान्य और वैध ठहराने जैसा संकेत नज़र आता है। प्रज्ञा ठाकुर ने कार्यक्रम के दौरान श्रद्धालुओं को गैर‑हिंदू विक्रेताओं से प्रसाद न खरीदने और उन्हें मंदिर के आसपास व्यापार करने की अनुमति न देने का भी निर्देश दिया

घरों को सशस्त्र करने की पुकार और भावनात्मक अपील

अपने भाषण में प्रज्ञा ठाकुर ने घरेलू सुरक्षा व आत्मरक्षा पर भी ज़ोर दिया। उन्होंने दोहराया कि उन्होंने पहले भी घरों में हथियार रखने की बात कही है और कहा कि धारदार हथियार रखने का आग्रह उन्होंने इसलिए किया ताकि परिवार अपनी रक्षा कर सकें। उन्होंने भावनात्मक स्वर में यह भी कहा कि जब किसी की बहन‑बेटी घर से उठाई जाती हैं और उनके साथ जान‑लेवा अत्याचार होते हैं, तो ऐसे आघात के बदले “कठोर” कार्रवाई की आवश्यकता महसूस होती है।

उनका यह कथन—कि “दुश्मन यदि घर की दहलीज़ पार करे तो उसे बीच में रोक देना चाहिए”—ने रक्षा के नाम पर आह्वान और कठोर प्रतिक्रिया के एक ऐसे संदेश को जाँचा है जो विवादास्पद मानी जा सकती है। उन्होंने दुर्गा वाहिनी को हर घर में “दुर्गा” तैयार करने और हर घर में नियम‑कानून बनाए रखने का उद्देश्‍य बताया।

सांस्कृतिक राष्ट्रवाद पर तीखी बातें

प्रज्ञा ठाकुर ने अपने संबोधन में राष्ट्रवादी और सांस्कृतिक विषयों का भी उल्लेख किया। उन्होंने उन लोगों की आलोचना की जो राष्ट्र की सांस्कृतिक परंपराओं को कमतर आँकते हैं और कहा कि देश की सांस्कृतिक अस्मिता की रक्षा जरूरी है। उनके संदेश में लोक‑भावना और सुरक्षा दोनों का टोन स्पष्ट दिखा।

सार्वजनिक बहस और कानूनी‑नैतिक मायने

राजनीतिक और सामाजिक हस्तियों के हिंसा‑उन्मुख कथनों के नैतिक और कानूनी पहलुओं पर बहस तेज हो जाती है। सार्वजनिक मंच से किसी समुदाय‑विरोधी या हिंसक कार्रवाई का आह्वान संवैधानिक और पुलिसिंग ढाँचे की निगरानी में आता है, और ऐसे बयानों से सामाजिक ताने‑बाने पर असर पड़ता है। इसी कारण मीडिया, नागरिक संगठनों और सरकारी संस्थाओं द्वारा इस तरह के बयानों की समीक्षा और प्रतिक्रियाएँ आम होती हैं।