नई दिल्ली। गुरुवार को बहुमत के फैसले में, सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि राज्यों को आरक्षित श्रेणी के भीतर कोटा आवंटित करने के लिए अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों को उप-वर्गीकृत करने का अधिकार है, जिसका उद्देश्य अधिक वंचित समूहों का उत्थान करना है।
मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली सात न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने 6:1 बहुमत से फैसला सुनाया कि राज्यों द्वारा एससी और एसटी के आगे उप-वर्गीकरण की अनुमति दी जा सकती है ताकि इन समूहों के भीतर अधिक पिछड़ी जातियों को कोटा प्रदान करना सुनिश्चित किया जा सके। पीठ ने छह अलग-अलग फैसले सुनाए।
बहुमत के फैसले में कहा गया कि उप-वर्गीकरण का आधार राज्यों द्वारा मात्रात्मक और प्रदर्शन योग्य डेटा द्वारा उचित ठहराया जाना चाहिए, जो अपनी मर्जी से काम नहीं कर सकते।
बहुमत के फैसले ने ई.वी. चिन्नैया बनाम आंध्र प्रदेश राज्य मामले में पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ द्वारा 2004 में दिए गए फैसले को पलट दिया, जिसमें कहा गया था कि उप-वर्गीकरण स्वीकार्य नहीं है, क्योंकि एससी/एसटी को समरूप वर्ग माना जाता है।
सर्वोच्च न्यायालय ने पंजाब अनुसूचित जाति और पिछड़ा वर्ग (सेवाओं में आरक्षण) अधिनियम, 2006 की वैधता से संबंधित एक मामले के संबंध में फैसला सुनाया, जिसमें आरक्षित श्रेणी के समुदायों का उप-वर्गीकरण शामिल था।
इसने फैसला सुनाया कि अनुसूचित जाति एक समरूप समूह नहीं है और सरकारें उन्हें उप-वर्गीकृत कर सकती हैं ताकि 15% आरक्षण में उन लोगों को अधिक महत्व दिया जा सके, जिन्हें अनुसूचित जातियों में अधिक भेदभाव का सामना करना पड़ा।
भारत के मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) डीवाई चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली शीर्ष अदालत की सात न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने फैसले में कहा, एससी/एसटी के सदस्य अक्सर व्यवस्थागत भेदभाव के कारण सीढ़ी चढ़ने में सक्षम नहीं होते हैं। अनुच्छेद 14 जाति के उप-वर्गीकरण की अनुमति देता है। न्यायालय को यह जांच करनी चाहिए कि क्या कोई वर्ग समरूप है या किसी उद्देश्य के लिए एकीकृत नहीं किए गए वर्ग को आगे वर्गीकृत किया जा सकता है।
सीजेआई के साथ फैसला सुनाने वाली पीठ के अन्य छह न्यायाधीश न्यायमूर्ति बीआर गवई, विक्रम नाथ, बेला एम त्रिवेदी, पंकज मिथल, मनोज मिश्रा और सतीश चंद्र शर्मा थे।
सीजेआई ने अपने और जस्टिस मिश्रा के लिए फैसला लिखा, जबकि चार जजों ने सहमति जताते हुए फैसले लिखे। इस मामले में बेला त्रिवेदी अकेली
असहमत जज थीं। उन्होंने बहुमत से असहमति जताई और फैसला सुनाया कि इस तरह का उप-वर्गीकरण स्वीकार्य नहीं है।
सुप्रीम कोर्ट ने पंजाब, तमिलनाडु और अन्य राज्यों में इस तरह के उप-वर्गीकरण के लिए कानून की वैधता को भी बरकरार रखा।