रानी लक्ष्मी बाई के विरुद्ध अंग्रेजों ने खेली थी कूटनीति

रानी लक्ष्मी बाई ने अपनी सेना का पूर्णत गठन कर लिया था और अंग्रेजो को मुहतोड़ जवाब देने के लिए तैयार थी। क़िले की प्राचीर पर तोपें रखवायीं और महल में रखा सोने एवं चाँदी के सामानों को तोपों के गोले बनाने के लिए दे दिया था। रानी ने किले की मजबूत क़िलाबन्दी की थी। तोपों और अपने वीर सिपाहियों से के साथ क्रोध से भरी रानी ने घोषणा की कि मैं अपनी झाँसी नहीं दूँगी। रानी के क्रोध और कौशल को देखकर अंग्रेज़ सेनापति सर ह्यूरोज भी आश्चर्य चकित सा रह गया।

अंग्रेजी हुकूमत लगातार किले पर कब्ज़ा पाने के लिए आठ दिनों तक क़िले पर गोले बरसाते रहे. परन्तु सफलता हाथ नहीं लग रही थी क्यूंकि रानी और उनकी प्रजा रूपी सेना ने अन्तिम सांस तक क़िले की रक्षा करने की प्रतिज्ञा ली थी। और अंग्रेजी सरकार की सेना के सेनापति ह्यूराज जान चुके थे की अपने सैन्य-बल से किले को जीतना सम्भव नहीं है। अत: उसने अपनी जीत के लिए कूटनीति चाल का प्रयोग किया. और झाँसी के एक विश्वासघाती सरदार दूल्हा सिंह को प्रलोभन दे अपने पक्ष में मिला लिया। और झाँसी गद्दार सरदार दूल्हा सिंह ने अंग्रेजो के लिए किले का दक्षिणी द्वार खोल दिया। और उसके बाद फिरंगी सेना उसी रास्ते से क़िले में प्रवेश कर गई, और चारो तरफ लुट-पाट तथा नरपिशाचों की तरह रक्त बहाने लगी वहा की प्रजा का।

क़िले में प्रवेश कर नरपिशाचों की तरह रक्त बहाने में लगी अंग्रेजी सेना के लिए रानी लक्ष्मी बाई ने रणचण्डी का रूप धारण कर लिया। दाहिने हाथ में नंगी तलवार लिए, पीठ पर पुत्र को बाँधे हुए झाँसी के वीर सैनिको के साथ शत्रुओं पर बिजली की गति से टूट पड़ी। चारो तरफ जय भवानी और हर-हर महादेव के उद्घोष से रणभूमि गूँज उठी। रानी के कुछ विशेष सलाहकारों ने सुझाव दिया की अंग्रेजी सेना के आगे झाँसी की सेना काफी तादाद में कम हैं और शत्रुओं पर विजय पाना असम्भव सा हैं।

विश्वासपात्रों की इस सलाह पर रानी वहा से कालपी की ओर निकल पड़ी। परन्तु शत्रुओं द्वारा चलायी गयी एक गोली रानी के पैर में जा लगी। गोली लगने के कारण उनकी गति कुछ कम हो गई. और दुर्भाग्य से मार्ग में एक नाला आ गया और घोड़ा उस नाले को पार ना कर सका। जिसके कारण अंग्रेज़ घुड़सवार उनके समीप आ गए। एक अंग्रेज घुड़सवार ने पीछे से रानी के सिर के ऊपर प्रहार किया जिससे उनके सिर का दाहिना हिस्सा कट गया और उनकी एक आंख बाहर आ गयी। रक्त से नहा उठी रानी को असहनीय पीड़ा हो रही थी लेकिन पीड़ा के बावजूद उनके मुख पर पीड़ा की एक भी लकीर नहीं थी. उनका मुखमण्डल दिव्य कान्त से चमक रहा था। उसी समय दुसरे सैनिक ने संगीन से उनके हृदय पर वार कर दिया। असहनीय पीड़ा के बावजूद रानी अपनी तलवार चलाती रहीं और उन्होंने आखिरकार दोनों आक्रमणकारियों का मौत के घाट उतार डाला और स्वयं भूमि पर गिर पड़ी। उसके पाश्चात्य उन्होंने एक बार अपने पुत्र को देखा और फिर अपनी तेजस्वी नेत्र को सदा के लिए बन्द कर वीर गति को प्राप्त हो गई।